विष्णु पुराण

By: Feb 11th, 2017 12:05 am

इति पूर्व बशिष्ठेन पुलस्त्येन च धीमता।

यचुक्त तत्स्मूति याति त्वत्प्रश्नादिखलं तम।

सोऽहं वदाम्ययेष ते मैत्रेय परिपृच्छते।

पुराणासहितां सम्यकता निबोध यथातथम्।

विष्णोः सकाशादुद्भुत जगत्तत्रैव च स्थितम।

स्थितिसंयकर्त्तासौ जगतौऽयं जगच्च सः।

हे मैत्रेय! पूर्वकाल में बशिष्ठ जी और बुद्धिमान पुलस्त्य जी ने इस प्रकार जो कहा था, वह सब इस समय तुम्हारे प्रश्न करने से मुझे स्मरण हो आया। अतएव अब मैं तुम्हारे द्वारा जिज्ञासित पुराण संहितापूर्ण रूप से बतलाता, तुम सम्यक तथा उसे श्रवण करो। यह समस्त जगत विष्णु से ही उत्पन्न हुआ और उन्हीं में स्थित है। इसकी स्थिति और संयम के कर्ता नहीं हैं और वस्तुतः वे ही जगत रूप हैं।

अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने।

सदैवरूपरूपाय विष्णवे सर्वविष्णवे।

नमो हिरण्यगर्भाय हरये शंकराय च।

बासुदेवाय ताराय सर्वस्थित्यन्तकारिणी।

एकानेकरूपाय स्थूलसूक्ष्मात्मने नमः।

अव्यक्तरूपाय विष्णवे मुक्तिहेतवे।

सर्गस्थिविनाशानां जगतो यो जगन्मय।

मूलभूतो मनस्तस्मै विष्णवे परमात्मने।

आधारभूतं विश्वस्याप्योणीयांसमणीयसाम्।

प्रणम्य सर्वभूतस्थमच्युत पुरुषोत्तमम्।

ज्ञानस्वरूपमत्यन्त निर्मलं परमार्थतः।

तमेवाथस्वरूपेण भ्रांतिदर्शनतः स्थितम।

विष्णु ग्रसिव्णु विश्वस्य स्थितो सर्गे तथा प्रभुम्।

प्रणम्य जनतामीशमजमक्षयमव्ययम्।

कथयामि यथापूर्व दक्षाद्यै मुनिसत्तमैः।

पृष्ठः प्रोवाच भगवानब्यजोनिः पितामहः।

पाराशरजी कहने लगे, अविचार, शुद्ध तीनों काल में अविनाशी परमात्मा, सर्वदा एक रूपा सर्व विजयी विष्णु ही हरि, हिरण्यगर्भ और शंकर के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन सृष्टि स्थिति विनाश करने वाले वसुदेव को नमस्कार है। एकाएक स्वरूप, स्थूल सूक्ष्ममय कार्य, कारणभूत, मुत्तिदाता विष्णु को नमस्कार है। इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय के मूलभूत जगतमय परमात्मा विष्णु को नमस्कार है। तिश्वाधर सूक्ष्माति सूक्ष्म, सक्ष्म, सब प्राणियों में स्थित, अक्षर, पुरुषोत्तम, ज्ञान स्वरूप, वास्तव में अत्यंत निर्मल किंतु भ्रांतिवश स्थूल रूप में दृश्यमान, कालस्वरूप, जन्यशून्य अक्षर जगदीश्वर विष्णु को प्रणाम करके मैं उस समस्त कथानक को कहता हूं। जिसको पद्मयोनि भगवान ब्रह्माजी ने दक्षादि महानुभावों के प्रश्न करने पर कहा था।

तैश्चौश्यं पुरुकुत्साय भूजुजे नर्मदातटे।

सारस्वताय तेनापि मह्यं सारस्वतेतन च।

परः पराणां परमः परमात्मात्मसंस्थितः।

रूपवर्णादिनिर्देश निशेषेणविवर्जितः।

परिणामधिजमन्मभिः। वर्जितः शक्यते वक्तुयः सदास्तोति केवलम्।

सर्वत्रासो समस्तं च वसत्यत्रेति वै ततः।

ततः स वासुदेवेति विद्विदिभ परिपठयव।

तद् ब्रह्मापरम नित्यमजमक्षयमव्ययम्।

एक स्वरूपं तु सदा हेयाभावच्च निर्मलम्।

तते सर्वमेतवद्व्यक्ताव्यक्तास्वरूपत्।

तथा पुरुषरूपेण कालरूपेण च स्थितम्।

दक्ष आदि मुनियों ने नर्मदा के तट पर पितामह का कथन राजा पुरुकुत्स को सुनाया था। पुरुकुत्स ने उस सारस्वत से कहा और सारस्वत से मैंने सुना। परात्पर आत्मसंस्थित परमात्मा जो कि रूप वर्ण निर्देश से रहित है, अपक्षय विनाश परिणाम बुद्धि जन्म से रहित है और जिसके संबंध के इतना ही कहा जा सकता है कि ‘सदा है’ वही इस जगत में सर्वत्र व्याप्त है और समस्त जगत उनमें वास करता है इसलिए वासुदेव कहा जाता है।

 


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App