संतुलन साधने का बजट

By: Feb 6th, 2017 12:08 am

newsकुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

राजनीतिक दलों को मिलने वाले नकद चंदे की सीमा को 20000 हजार रुपए से घटाकर 2000 रुपए करके वित्त मंत्री ने देश के विभिन्न राजनीतिक दलों, खास कर वाम दलों के चिढ़ने का जोखिम मोल लिया है। लेकिन उन्होंने देश के समक्ष एक संतुलित तस्वीर पेश करने की कोशिश की है। लिहाजा राजनीतिक दलों के चंदे के संबंध में ऐसा कदम उठाना अनिवार्य ही था। जब केंद्रीय बजट की घोषणा की गई, तो 486 अंकों के उछाल के साथ शेयर बाजार में भी इसका उत्साह साफ देखने को मिल रहा है…

बजट को चाहे कितना ही दूरदर्शी क्यों न करार दिया जा रहा हो, लेकिन यह यथास्थिति को बढ़ावा देने वाला ही माना जाएगा। संभवतः मोदी सरकार ने बजट बनाते समय उत्तर प्रदेश व अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखा होगा। उनके बजट में न तो किसी नए कर प्रस्ताव का प्रावधान किया गया है और ही इसका उल्लेख मिलता है कि दीर्घकाल में सरकारी राजस्व को बढ़ाने की क्या योजना है। इसके लिए सरकार की निर्भरता मुख्य तौर पर अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि या विभिन्न तरह के आर्थिक अनुदानों में कटौती पर ही केंद्रित हो चुकी है। इस तरह के तौर-तरीकों को चलन में लाने से वैसे तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन एक सीमा के बाद इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है। आज भारत रोजगार के लिए बड़ी अपेक्षाएं लगाए हुए है। हजारों हजार युवा स्नातक स्तर तक की पढ़ाई करके भी घर पर बेरोजगार बैठे हैं। निजी क्षेत्र में भी रोजगार के इतने अवसर पैदा नहीं हो पा रहे कि बेरोजगारों को इसमें खपाया जा सके। कृषि क्षेत्र में जरूर कुछ वृद्धि हुई है, जिससे आज यह 4.1 फीसदी की दर पर पहुंच चुका है, लेकिन युवाओं को तो आज ‘व्हाइट कॉलर जॉब’ चाहिए, जिसके लिए भले ही उन्हें वेतन कम मिलता रहे। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी स्वीकार किया है कि गत वर्ष के बजट में रोजगार सृजन में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो पाई है। इसके बचाव में उनका तर्क यह है कि जैसे ही अर्थव्यवस्था की विकास दर में वृद्धि जोर पकड़ेगी, स्वरोजगार के अवसर खुद-ब-खुद बढ़ने लगेंगे।

कालेज से निकलने वाले युवाओं को इस बात  का आश्वासन भी नहीं होता कि देर-सवेर उन्हें भी रोजगार मिल पाएगा। इसमें संदेह नहीं कि लघु उद्योगों को बजट में राहत देने की एक सार्थक कोशिश की गई है, फिर भी समूचे औद्योगिक क्षेत्र को रफ्तार देने के लिए ये प्रयास नाकाफी माने जाएंगे। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों से अपेक्षा थी कि वे अर्थव्यवस्था में प्रभावशाली भूमिका में आ सकते हैं, लेकिन फंडों के अभाव में इनसे लगाई गई सारी उम्मीदें मिट्टी में मिलकर रह गई हैं। आज व्यवस्था के स्तर पर सबसे बड़ा संकट यह है कि इसमें योजना पूरी तरह से गायब है। जब नरेंद्र मोदी ने केंद्र की सत्ता संभाली, तो वह उद्योग भवन के गठन के पक्ष में थे। उनका योजना में विश्वास नहीं था और वह मानते थे कि जब इसके तहत जरूरत के हिसाब से धन खर्च किया जाता रहेगा, तो बाकी सब कुछ अपने आप ठीक होता चला जाएगा। खर्च का कोई निर्धारित क्रम नहीं है, इसके अलावा ऐसी सोच में कोई खास विचार नजर नहीं आता। सरकार भले इसकी जरूरत को महसूस करती रही हो, लेकिन इसका जिम्मा संबंधित विभागों पर छोड़ दिया है।

आज भी हमारी मानसिकता में यह विचार अटका हुआ है कि जहां तक संभव हो, घाटे की वित्तीय व्यवस्था से बचा जाए। चूंकि आज महंगाई दर करीब 3.5 फीसदी के न्यूनतम स्तर पर आ चुकी है, तो यहां से व्ययों में वृद्धि नुकसानदेह हो सकती है। तंत्र को आज इस परिधि से बाहर निकलने की जरूरत है। केवल व्यय में वृद्धि के मार्फत ही नए निजी व सार्वजिक उपक्रम स्थापित किए जा सकते हैं। वित्त मंत्री ने अपने बजट में सियासी तिकड़मबाजी के बजाय राजस्व प्रबंधन को तरजीह दी है। यही वजह है कि आरएसएस ने यह कहते हुए बजट की आलोचना की है कि यह अपेक्षाओं से कहीं पीछे रह गया है। निश्चित तौर पर अरुण जेटली ने देश की राजस्व हालत को ध्यान में रखते हुए ही बजट पेश किया है, फिर चाहे भाजपा को नियंत्रित करने वाले इससे कितने भी खिन्न क्यों न रहें। राजनीतिक दलों को मिलने वाले नकद चंदे की सीमा को 20000 हजार रुपए से घटाकर 2000 रुपए करके उन्होंने देश के विभिन्न राजनीतिक दलों, खास कर वाम दलों के चिढ़ने का जोखिम मोल लिया है। लेकिन उन्होंने देश के समक्ष एक संतुलित तस्वीर पेश करने की कोशिश की है। लिहाजा राजनीतिक दलों के चंदे के संबंध में ऐसा कदम उठाना अनिवार्य ही था। जब केंद्रीय बजट की घोषणा की गई, तो 486 अंकों के उछाल के साथ शेयर बाजार में भी इसका उत्साह साफ देखने को मिल रहा है।

मध्यम वर्ग को भी इसमें कुछ राहत देने का प्रयास किया गया है, जिसके अंतर्गत आयकर में कटौती करते हुए वार्षिक अढ़ाई लाख से पांच लाख के बीच की आय वालों के लिए कर की दर घटाकर पांच फीसदी कर दी है। आज जबकि कालाधन देश में एक बड़ी समस्या बन चुका है, आयकर में दी गई इस राहत के बाद देश में करदाताओं की संख्या में जरूर इजाफा होगा। कालेधन को बचाने के लिए लोगों ने तब भी काफी हाथ-पैर मारे, जब नोटबंदी के बाद 500 और 1000 के पुराने नोटों को बदला जा रहा था। काले बाजार में तब इन नोटों को भी आधे मूल्य पर बेचा जा रहा था। इस वर्ष के बजट में एक और खास चीज देखने को मिली है कि सालों से आम बजट और रेल बजट को अलग पेश करने की परंपरा को अब खत्म कर दिया गया है। अगर मैं गलत न हूं, तो स्वतंत्रता के बाद पहली बार देश का बजट संयुक्त रूप में पेश किया गया है। कोई और लाभ हो या न हो, लेकिन इससे रेलवे राजनीति की गिरफ्त से बाहर निकल सकेगी। कंपनियों के कारपोरेट कर के लिए सालाना टर्नओवर की सीमा घटाकर पचास करोड़ रुपए कर देने से देश की करीब 96 फीसदी कंपनियों को लाभ होगा। विदेशी निवेश संवर्द्धन बोर्ड को निरस्त करने का फैसला भी विदेशों से होने वाले विवेश के प्रवाह को सरल एवं सुगम बना देगा।

मोदी सरकार अगले लोकसभा चुनावों की आधी राह पर पहुंच चुकी है। लिहाजा इसके जहन में आज कई परिदृश्य घूम रहे होंगे। हालांकि ये परिदृश्य अभी तक स्पष्ट तौर पर सामने नहीं आए, लेकिन यकीन के साथ कहा जा सकता है कि आगामी आम चुनावों पर इनका असर जरूर पड़ेगा। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि मोदी की चाह एक और कार्यकाल की होगी। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अब तक भी एक प्रभावी विपक्षी नेता के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करवा सके हैं। इसके कारण मोदी के लिए अपनी इस चाहत को पूरा करना और भी आसान हो जाएगा। त्रासदी यह है कि मोदी हिंदुत्व की भावना को मजबूत करने में सक्रिय हैं। नागपुर स्थित आरएसएस मुख्यालय से आदेश पाकर कार्य योजना का निर्धारण करने वाले लोग उस देश की सेवा नहीं कर सकते, जिसकी मूल प्रकृति व सिद्धांत पंथनिरपेक्षतावादी रहे हैं। देश को चलाने वाले संविधान ने हिंदुओं, मस्लिमों, सिखों या ईसाइयों के लिए समान अधिकारों की व्यवस्था की हुई है। भाजपा संविधान के इस संदेश पत्र को चुनौती नहीं दे सकती, क्योंकि हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा है कि कोई भी दल जाति या मजहब के आधार पर वोट नहीं मांग सकता। यह महज एक संदेश पत्र नहीं, बल्कि एक ऐसी भावना है, जिसके अहम मायने हैं। अर्थव्यवस्था में भी इसी रूप में बदलाव करने होंगे।

ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com


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