अज्ञानता का अंधकार

By: Mar 25th, 2017 12:05 am

बाबा हरदेव

ये सारे पांच तत्त्व के पुतले हैं और इन सब में एक ही नूर, परमात्मा के अंश के रूप में, आत्मा के रूप में है। यह जो सर्वत्र समाई परम सत्ता है, यह घट-घट में बसती है। यह एक आत्मा के रूप में हर किसी में बसती है…

हम चारों तरफ  जो वातावरण देख रहे हैं, इससे आखिर क्या भला हुआ है? धर्म, मजहब की दीवार खड़ी करके आखिर इनसान की कहां भलाई हुई है। जाति-पाति की दुहाई देकर जिस तरह से एक-दूसरे को नकारा गया है, उससे आखिर इस वातावरण को सुंदर बनाने में कौन सी मदद मिली है। विडंबना यह है कि नुकसान हो भी रहे हैं, नुकसान किए भी जा रहे हैं फिर भी इनसान के कदम उस तरफ  जाने से रुक नहीं रहे हैं। उसी तरह से जैसे कोई शराबी होता है, नशा करता है। उसका लिवर फेल हो रहा है, सारा परिवार मजबूर हो रहा है, जो कमाई थी, वह इलाज में लग रही है, कंगाली की हालत में पहुंच रहे हैं फिर भी वह उस बोतल को छोड़ने को तैयार नहीं है। नुकसान हो भी रहे हैं, जीवन हाथों से निकल रहा है, परिवार वालों के चेहरों पर मायूसी छा गई है, इसके बावजूद वह नशे की लत छोड़ने को तैयार नहीं है। इसी तरह से अगर मूल्यांकन किए जाएं, तो यह जो रास्ता इनसान ने अख्तियार किया है, इससे किसका भला हुआ है। केवल  नुकसान ही हुए हैं इसलिए महापुरुष, संतजन यह पैगाम दोहराते चले जाते हैं कि इनसान को जागृति मिले। इनसान समय रहते हुए समझ जाए और इस प्रकार से वो सारी दीवारें गिरा कर अपने आपको उस रास्ते पर चला ले, जिस रास्ते पर चलते हुए वास्तविकता में संसार की भलाई होती है। जो वास्तविकता में संकीर्ण दिल वाले होते हैं, जो अज्ञानता वाले होते हैं, उन्हीं के लिए दीवारें महत्त्व रखती है, लेकिन जो जागरूक होते हैं, जो इनसानियत वाले होते हैं, उनके लिए दीवारों की कोई महत्ता नहीं होती। वो उन दीवारों को लांघ जाते हैं, उन दीवारों को गिरा देते हैं, ज्ञान के हथौड़े से। इस प्रकार से वहां पर कोई दूरियां नहीं रह जाती। वहां पर नजदीकियां आ जाती हैं। वहां पर अपनापन स्थापित हो जाता है।

न कोई बैरी न ही बेगाना, सगल संग हमकउ बनि आई। कोई बेगाना नहीं है, सभी अपने हैं। कोई अजनबी नहीं है, किसी और दुनिया से नहीं आया, सारे इस धरती के वासी हैं। सारे इसी धरती पर जन्मे हैं, सभी इस इनसानी जामें में ही पैदा हुए हैं। चाहे वो आज से पहले या आज या आने वाले समय में पैदा होंगे। ये सारे पांच तत्त्व के पुतले हैं और इन सब में एक ही नूर, परमात्मा के अंश के रूप में, आत्मा के रूप में है। यह जो सर्वत्र समाई परम सत्ता है, यह घट-घट में बसती है। यह एक आत्मा के रूप में हर किसी में बसती है। इसलिए यह अगर इसी से आई है और इसी का अंश है तो फिर क्यों अपनापन पैदा नहीं हो रहा है। क्यों बेगानेपन की भावना है। फिर क्यों ऊंच-नीच वाली दृष्टि है। यह सब इसलिए है क्योंकि इनसान ने वह असल वाली बात समझी ही नहीं है, जो असल बात है वह इसकी इस पकड़ में आई नहीं है। यह अभी भी अज्ञानता का अंधकार ढोता चला जा रहा है, अभी भी ऐसी-ऐसी मान्यता से युक्त है जिसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं है। जो कुछ वह कर रहा है, यह सोचकर कि उसका वास्ता सीधा-सीधा कल्याण से है कि उसे जन्नत नसीब होगी, स्वर्ग के दरवाजे खुल जाएंगे। परलोक में शाबाशी मिलेगी, तो वे ऐसा मानकर चल जरूर रहे हैं, लेकिन यह मान्यता अज्ञानता पर आधारित है, हकीकत से इसका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है । हकीकत तो यही है कि जन्नत उन्हीं को नसीब होती है, जो इस दुनिया में दूसरों के लिए जन्नत बनने का कारण बनते हैं, जो दूसरों की खुशी का कारण बनते हैं, उनके हिस्से में वास्तविकता में जन्नत आती है।

 


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