अष्टावक्र महागीता

By: Mar 11th, 2017 12:05 am

आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिद्क्रियः।

असङ्गो निस्पृहः शांतो भ्रमात्संसारवानिव।।

सूत्र का अर्थ

आत्मा साक्षी, विभु (व्यापक), पूर्ण एक, मुक्त, चैतन्य, अक्रिय (क्रियारहित), असंग (अकेला), निस्पृह (कामनारहित), शांत है। भ्रमवश ही यह संसारी प्रतीत होता है। जिन्हें बोध (ज्ञान) नहीं होता, वही इस पंच भौतिक शरीर को सब कुछ मानते हैं। उनकी दृष्टि में आत्मा कुछ नहीं है। शरीर से भोगे जाने वाले भोगों में ही सुख है। इसके विपरीत जिन्हें बोध है, वे शरीर को सांसारिक मानते हैं जो यहीं नष्ट हो जाएगा। उनकी दृष्टि में आत्मा ही सुख स्वरूप, आनंदमय है। आत्मा ही उनके लिए सब कुछ है। अष्टावक्र इस सूत्र में राजा जनक से कहते हैं जनक! तुझे तो कुछ प्राप्त करना ही नहीं है। तुझे तो वह प्राप्त ही है, जिसे पाना चाहिए। अर्थात आत्मा का ज्ञान। आत्मज्ञ तुझे प्राप्त है। वह आत्मा तू ही है। तुझे उसे केवल स्मृति में लाना है। करना कुछ भी नहीं है। जिस आत्मा को तू भूला बैठा है, उसे बोध के द्वारा जागकर देखने भर की आवश्यकता है। अष्टावक्र कहते हैं कि आत्मा सबका द्रष्टा है, अर्थात वह सब कुछ तथा सबको देखता है। लेकिन उसे कोई भी नहीं देख पाता। क्योंकि वह सूक्ष्म है। आत्मा विभु (व्यापक) है। वह चराचर जगत में सूक्ष्म रूप से ही परिव्याप्त है। उसे किसी सीमा में आबद्ध नहीं किया जा सकता और न ही उसे परिभाषित किया जा सकता।


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