गणेश पुराण

By: Mar 25th, 2017 12:05 am

पुत्र का सामर्थ्य और आज्ञाकारिता को देखकर दिति बोली, पुत्र ! इंद्र ने मेरे कितने ही पुत्रों का वध कर डाला है। मेरी इच्छा है कि इंद्र का वध करके तुम अपने भाइयों का प्रतिशोध लो। माता के वचनों को सुनकर वज्रांग जो आज्ञा कहकर चल दिया और अपने अमोघ, सामर्थ्य वाले पाश से इंद्र को बांधकर तुरंत अपनी माता के पास ले आया…

इंद्र कपट वृत्ति से दिति के पास आकर उसकी सेवा-शुश्रषा में लग गया। जब निर्धारित अवधि में से दस वर्ष शेष रह गए, तो दिति ने इंद्र को बताया कि उसके उदर से एक तेजस्वी बालक उत्पन्न होने वाला है। जिससे समझौता करके अर्थात उसे सहभागी बनाकर जीने में ही इंद्र का हित होगा और वह प्रयास करेगी कि दोनों मिल-जुलकर स्वर्ग का उपभोग करें। दिति के इन वचनों को सुनकर इंद्र और अधिक सतर्क हो गया। एक दिन जब तप से शांत दिति संयोगवश बिना मुख शौच किए ही निद्रानिमग्न हो गई, तो इंद्र उपयुक्त अवसर देखकर दिति के उदर में घुस गया और उसने अपने वज्र से गर्भ के सात अंड कर दिए। इंद्र को इतने से ही संतोष नहीं हुआ। उस स्वार्थी ने प्रत्येक अंड के पुनः सात-सात खंड कर दिए। इस बीच दिति नींद से जाग गई और इंद्र से अपनी संतान का वध न करने को कहने लगी। दिति के वचन सुनकर इंद्र गर्भ से बाहर निकल आया और करबद्ध होकर बोला, मैंने आपके गर्भ के उनचास भाग कर दिए हैं। मैं इन सब को स्वर्ग में यथोचित स्थान दूंगा और इन्हें यज्ञांश मिलने की भी व्यवस्था करूंगा। अपने गर्भ की यह स्थिति देखकर यथासमय सुरूपा दिति ने पुनः अपने पति कश्यप जी को प्रसन्न करके उनसे प्रार्थना की कि वे उसे इंद्र को जीतने वाला एक ऐसा पुत्र प्रदान करने की कृपा करें कि जो देवों के किसी भी शस्त्रास्त्र से न मारा जा सके। पत्नी को दुखी देखकर कश्यप जी को दया आ गई और उन्होंने उसे अभीष्ट प्राप्ति के लिए दस सहस्र वर्ष पर्यंत तप करने का सुझाव दिया। कश्यप जी ने बताया कि तप की सफलता पर दिति वज्र के समान दृढ़ अंगों वाला वज्रांग पुत्र प्राप्त करेगी। अपने पति के वचन को आदेश मानकर दिति वन में चली गई और उसने पूर्ण निष्ठा के साथ दस हजार वर्षों तक पुनः घोर तप किया। तप की समाप्ति पर उसे अच्छेद्य, अभेद्य एवं अजेय पुत्र की प्राप्ति हुई। उत्पन्न बालक शीघ्र ही सभी शास्त्रों में परांगत हो गया और समर्थ होने पर मां के करबद्ध होकर सेवा पूछने लगा। पुत्र का सामर्थ्य और आज्ञाकारिता को देखकर दिति बोली, पुत्र ! इंद्र ने मेरे कितने ही पुत्रों का वध कर डाला है। मेरी इच्छा है कि इंद्र का वध करके तुम अपने भाइयों का प्रतिशोध लो। माता के वचनों को सुनकर वज्रांग जो आज्ञा कहकर चल दिया और अपने अमोघ सामर्थ्य वाले पाश से इंद्र को बांधकर तुरंत अपनी माता के पास ले आया। इंद्र उस दैत्य से इस प्रकार कंपायमान था, जैसे कि सिंह के पंजे में पड़े हुए मृग के प्राण सूख जाते हैं। इसी समय वहां ब्रह्मा जी और कश्यप जी का भी आगमन हुआ। तब उन दोनों ने संत्रस्त इंद्र को बंधन से मुक्त करने के लिए दिति और उसके पुत्र से कहा। ब्रह्मा जी बोले, हे देवि ! सम्मानित व्यक्ति का अपमान उसका वध ही है। हमारे कहने से आप इसे जब मुक्त करेंगी तो इसे आप मरा हुआ ही समझेंगी। इधर वज्रांग को संबोधित करते हए कश्यप जी बोले, वत्स ! दूसरे के अनुमोदन से शत्रु के बंधन से मुक्त होने वाला व्यक्ति कितने दिन जीता है? वह तो उसी समय मर चुका होता है। अपमान का जीवन भी कोई जीवन होता है ! कश्यप जी के ऐसे वचन सुनकर वज्रांग बोला, हे पितृचरण ! मुझे तो इंद्र से कुछ लेना-देना नहीं है। मैंने तो केवल अपनी जननी के आदेश का पालन किया है। आप मेरे पिता और ब्रह्मा जी पितामह हैं।


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