दुःख और उसका भोग

By: Mar 25th, 2017 12:05 am

यदि कोई यह धारणा रखता है कि नशे में मस्त होकर संसार के विषय भोगे जाएं तो बहुत कुछ आनंद की उपलब्धि हो सकती है तो उसकी बुद्धि पर तरस खाना होगा। नशे तो जीवन की हरियाली के लिए आग और विषय साक्षात विष माने गए हैं। इनका सेवन करने वाला आनंद के स्थान पर मृत्यु के हेतु ही लग जाता है। संसार में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है कि विषय भोगों और हास विलासों के कार्यक्रमों  में आनंद की खोज करने के लिए दिन-रात लगे रहते हैं। किंतु उन अबोधों का परिणाम दारिद्रय और हास विलास के नाम पर विषयों और व्यसनों के बंदी बन जाने वाले लोग आनंद मृग तृष्णा में भूलते भटकते हुए जीवन का दांव हार जाते हैं। आत्मा की आनंददायक गहराई में मनुष्य तभी उतर पाता है, जब वह संसार के आवश्यक कर्त्तव्यों से निवृत्त होकर उससे अपने को मुक्त कर लिया करता है और निवृत्ति के क्षणों में निश्चित तथा निर्विकार होकर आत्मचिंतन किया करता है। आत्म चिंतन तभी संभव होता है जब मनुष्य सांसारिक मृग तृष्णा में अपने को कम से कम उलझाता है और जितना उलझाता भी है उतने में ही निस्पृह रहता है। जो सांसारिक पदार्थों और वासनात्मक विषयों की पूर्ति में आनंद की संभावना देखते हैं, वे उसमें इस हद तक उलझे रहते हैं कि आत्मचिंतन करने का अवकाश ही नहीं रहता। यह बात सही है कि संसार के विषय भी किसी हद तक आवश्यक होते हैं। उनका भाग उन्हें मिलना ही चाहिए किंतु उनको जीवन का ध्येय नहीं बना लेना चाहिए। सुख का मूल स्रोत पदार्थ और साधन नहीं आत्मा है। आनंद का निर्झर अपने भीतर फूटता है। सांसारिक भोग विलासों और विषय वासनाओं में सुख की खोज करना न केवल अपना समय ही नष्ट करना है, बल्कि शक्तियों का नाश करना भी। यह बात सही है कि संसार में रहकर सांसारिक गतिविधियों से बचा नहीं जा सकता। उनमें चाहते अथवा न चाहते हुए भी पड़ना ही होता है। तब भी उनमें पड़कर भी शोक संताप से बचे रहने का एक ही उपाय है कि अपने व्यक्तित्व को आध्यात्मिक सांचे में ढाल लिया जाए। आध्यात्मिक अर्थात अंतर्मुखी वृत्ति का सहारा लेकर चलने वाला व्यक्ति इस दुख पूर्ण संसार में सदा सुखी ही बना रहता है। अध्यात्म जीवन का एक विशिष्ट पहलू है। उसकी उपेक्षा करके यथार्थ की प्राप्ति पर विश्वास नहीं किया जा सकता। फुटबाल का खिलाड़ी गेंद उछाल सकता हो, किंतु उसके साथ दौड़ न सकता हो तो वह गोल नहीं कर सकता। विद्यार्थी को पुस्तकें भी पढ़नी पड़ती हैं और पाठों का लिखित अभ्यास भी करना पड़ता है। मल्लाह नदी में तब उतरता है जब वह नाव चलाने के साथ संकट में तैर सकने की कला भी सीख लेता है। दिन और रात, प्रकाश और अंधकार, भूत और भविष्य की तरह बाह्यंतर जीवन के दो पहलू हैं। उनमें से केवल एक बाह्य जीवन, पदार्थमय जीवन को ही प्रमुख मानकर सुखी नहीं रहा जा सकता। आंतरिक तथा भावनात्मक जीवन को भी स्थिर, शुद्ध, पवित्र और क्रियाशील किए बिना सुख की कल्पना व्यर्थ है। आध्यात्मिकता के आधार पर पाया हुआ सुख ही सच्चा और वास्तविक सुख है। जो सांसारिक सुखों में, सांसारिक भाव से पड़ा रहता है वह उसके दुखों में कभी उबर नहीं पाता। आध्यात्मिक विचारधारा वाला व्यक्ति सांसारिक झगड़ों से ऊपर रहता है।  उनके अशिव प्रभाव से अपने व्यक्तित्व की रक्षा करते रहने में कभी प्रमाद नहीं करता। संयोगवश यदि उसके सामने दुख की परिस्थिति आ भी जाती है तो वह उसको भी सुख की तरह निर्लिप्त भाव से भोग डालता है और पानी में कमल की भांति उनमें अलग ही रहता है। ऐसे उन्नत व्यक्तित्व वाले लोगों को वैसी स्थिति में कितना सुख होता होगा, इसको तो एक आध्यात्मिक व्यक्ति ही जानता है।


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