नोच रहे हैं खंभ
(डा. सत्येंद्र शर्मा, चिंबलहार, पालमपुर)
बिल्ले-बिल्लियां मिल गए, नोच रहे हैं खंभ,
सब कुछ तो अब मिट गया, नहीं मिट सका दंभ।
हार पचाना है कठिन, क्या बोलें अब आप,
लो मशीन की छेड़ का, करते हैं वे जाप।
कोरे लांछन लग रहे, खिसक चुका मैदान,
ईवीएम में जानकर, अटका ली है जान।
जश्न हार का मन रहा, खूब बजाए गाल,
आसमान की चाह में, पहुंच गए पाताल।
ओंधे मुंह ऐसे गिरे, लुटा मान-सम्मान,
चले जीतने देश को, झोली में अपमान।
बहना खंभा नोचतीं, बहुत निम्न है सोच,
हाथी मूर्ति बना हुआ, गर्दन में है मोच।
आरोप मढे़े, जैसे मिला हो जन्मसिद्ध अधिकार,
साइकिल बिखरी है पड़ी, खूब पड़ गई मार।
गया मानसिक संतुलन, बोल रहे क्या आप,
नित चुनाव आयोग को, बुआ देतीं श्राप।
है मशीन बिलकुल सही, अगर गए तुम जीत,
हार गए तो दोष है, यही पुरानी रीत।
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