प्रकृति में श्रधा का प्रतीक आमलकी एकादशी

By: Mar 4th, 2017 12:12 am

प्रकृति को ईश्वर से जोड़ने की अनूठी दृष्टि भारत की विशेषता है। यह इसी देश में संभव है कि भगवान विष्णु की परमप्रिय तिथि को किसी फल से जोड़कर उसकी खासियत के बारे में लोंगो को जागरूक किया जाए। आंवला एकादशी समाज में अच्छाइयों को रोपने के भारतीय तरीके से हमार परिचय कराती है। भारतीय परंपरा गाय और आंवला, दोनों को सर्वदेवमय मानती है …

प्रकृति में श्रधा का प्रतीक आमलकी एकादशीप्रकृति में श्रधा का प्रतीक आमलकी एकादशीसमस्त एकादशियों के व्रत की कथा, तरीका और माहात्म्य भगवान श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर के मध्य हुए संवाद में मिलता है। आमलकी एकादशी के बारे में भी हम ऐसे ही संवाद के माध्यम से जानते हैं। युधिष्ठिर को इस एकादशी का माहात्म्य बताते हुए भगवान श्रीकृष्ण हैं कि महाभाग धर्मनंदन ! फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम ‘आमलकी’ है। इसका व्रत विष्णुलोक की प्राप्ति कराने वाला है। राजा मांधाता ने भी महात्मा वशिष्ठजी से इसी प्रकार का प्रश्न पूछा था, जिसके जवाब में वशिष्ठजी ने विस्तार से इसकी कथा बताते हुए कहा था कि महाभाग! भगवान विष्णु के थूकने पर उनके मुख से चंद्रमा के समान कांतिमान एक बिंदु प्रकट होकर पृथ्वी पर गिरा । उसी से आमलक (आंवले) का महान वृक्ष उत्पन्न हुआ, जो सभी वृक्षों का आदिभूत कहलाता है । इसी समय प्रजा की सृष्टि करने के लिए भगवान ने ब्रह्माजी को उत्पन्न किया और ब्रह्माजी ने देवता, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा निर्मल अंतःकरण वाले महर्षि को जन्म दिया । उनमें से देवता और ऋषि उस स्थान पर आए, जहां विष्णुप्रिय आंवले का वृक्ष था । महाभाग! उसे देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ क्योंकि उस वृक्ष के बारे में वे नहीं जानते थे। उन्हें इस प्रकार विस्मित देख आकाशवाणी हुई-‘महर्षियो! यह सर्वश्रेष्ठ आमलक का वृक्ष है, जो विष्णु को प्रिय है । इसके स्मरणमात्र से गोदान का फल मिलता है। स्पर्श करने से इससे दोगुना और फल भक्षण करने से तिगुना पुण्य प्राप्त होता है। यह सब पापों को हरनेवाला वैष्णव वृक्ष है। इसके मूल में विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कंध में परमेश्वर भगवान रुद्र, शाखाओं में मुनि, टहनियों में देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुद्गण तथा फलों में समस्त प्रजापति वास करते हैं। आमलक सर्वदेवमय है। अतः विष्णुभक्त पुरुषों के लिए यह परम पूज्य है। इसलिए सदा प्रयत्नपूर्वक आमलक का सेवन करना चाहिए ।’

इस पर ऋषि बोले-आप कौन हैं ? देवता हैं या कोई और ? हमें ठीक- ठीक बताइए । पुनः आकाशवाणी हुई-जो संपूर्ण भूतों के कर्ता और समस्त भुवनों के स्रष्टा हैं, जिन्हें विद्वान पुरुष भी कठिनता से देख पाते हैं, मैं वही सनातन विष्णु हूं। देवाधिदेव भगवान विष्णु का यह कथन सुनकर वे ऋषिगण भगवान की स्तुति करने लगे। इससे भगवान श्रीहरि संतुष्ट हुए और बोले- ‘महर्षियों! तुम्हें कौन सा अभीष्ट वरदान दूं? ऋषि बोले- भगवन्! यदि आप संतुष्ट हैं तो हम लोगों के हित के लिए कोई ऐसा व्रत बतलाएं, जो स्वर्ग और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला हो। श्रीविष्णुजी बोले- महर्षियो! फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष में यदि पुष्य नक्षत्र से युक्त एकादशी हो तो वह महान पुण्य देनेवाली और बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाली होती है । इस दिन आंवले के वृक्ष के पास जाकर वहां रात्रि में जागरण करना चाहिए। इससे मनुष्य सब पापों से छूट जाता है और सहस्र गोदान का फल प्राप्त करता है । विप्रगण! यह व्रत सभी व्रतों में उत्तम है, जिसे मैंने तुम लोगों को बताया है। ऋषि बोले- भगवन्! इस व्रत की विधि बताइए। इसके देवता और मंत्र क्या हैं ? पूजन कैसे करें? उस समय स्नान और दान कैसे किया जाता है? भगवान श्रीविष्णुजी ने कहा- द्विजवरों! इस एकादशी को व्रती प्रातःकाल दंतधावन करके यह संकल्प करेंकि हे पुंडरीकाक्ष! हे अच्युत! मैं एकादशी को निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूंगा। आप मुझे शरण में रखें ।’ ऐसा नियम लेने के बाद पतित, चोर, पाखंडी, दुराचारी, गुरुपत्नीगामी तथा मर्यादा भंग करनेवाले मनुष्यों से वह वार्तालाप न करें। अपने मन को वश में रखते हुए नदी में, पोखरे में, कुंए पर अथवा घर में ही स्नान करे। स्नान के पहले शरीर में मिट्टी लगाए। विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह परशुरामजी की सोने की प्रतिमा बनवाए। यह प्रतिमा स्वर्ण की हो तो इसे उत्तम माना जाता है। स्नान के पश्चात घर आकर पूजा और हवन करें। इसके बाद सब प्रकार की सामग्री लेकर आंवले के वृक्ष के पास जाएं। वहां वृक्ष के चारों ओर की जमीन झाड़ बुहार, लीप पोतकर शुद्ध करें। शुद्ध की हुई भूमि में मंत्रपाठपूर्वक जल से भरे हुए नवीन कलश की स्थापना करंे। कलश में पंचरत्न और दिव्य गंध आदि छोड़ दें। श्वेत चंदन से उसका लेपन करें। उसके कंठ में फूल की माला पहनाएं। सब प्रकार के धूप की सुगंध फैलाएं। जलते हुए दीपकों की श्रेणी सजाकर रखें। तात्पर्य यह है कि सब ओर से सुंदर और मनोहर दृश्य उपस्थित करेंताकि मन आध्यात्मिकता की तरफ उन्मुख हो सके। पूजा के लिए नवीन छाता, जूता और वस्त्र भी मंगाकर रखें। कलश के ऊपर एक पात्र रखकर उसे श्रेष्ठ खीलों से भर दें, फिर उसके ऊपर परशुरामजी की मूर्ति  स्थापित करे। इसके पश्चात भक्तियुक्त चित्त से शुद्ध फल के द्वारा देवाधिदेव परशुरामजी को अर्घ्य प्रदान करें। अर्घ्य देते समय निवेदन करें कि ‘देवदेवेश्वर! जमदग्निनंदन! श्री विष्णुस्वरुप परशुरामजी ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आंवले के फल के साथ दिया हुआ मेरा यह अर्घ्य ग्रहण कीजिए।’ भक्तियुक्त चित्त से जागरण करें। नृत्य, संगीत, धार्मिक उपाख्यान तथा श्रीविष्णु संबंधी कथा वार्ता आदि के द्वारा वह रात्रि व्यतीत करें। उसके बाद भगवान विष्णु के नाम ले लेकर आमलक वृक्ष की परिक्रमा एक सौ आठ बार करें। फिर सवेरा होने पर श्रीहरि की आरती करें। ब्राह्मण की पूजा करके वहां की सब सामग्री उसे निवेदित कर दें। परशुरामजी का कलश, दो वस्त्र, जूता आदि सभी वस्तुएं दान कर दें और यह भावना करें कि ‘परशुरामजी के स्वरुप में भगवान विष्णु मुझ पर प्रसन्न हों।’ तत्पश्चात आमलक का स्पर्श करके उसकी प्रदक्षिणा करेंऔर स्नान करने के बाद विधिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराएं। इन समस्त गतिविधियों के समापन के बाद आप अन्न ग्रहण कर सकते हैं। शास्त्रों इस एकादशी व्रत को करने से मिलने वाले फल का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि संपूर्ण तीर्थों के सेवन से जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकार के दान देने दे जो फल मिलता है, वह सब आमलकी एकादशी का व्रत विधिपूर्वक करने से मिलता है। इस व्रत को करने से समस्त यज्ञों का फल भी मिलता है। आमलकी एकादशी व्रत के बारे में इतना विस्तार से बताने के बाद वशिष्ठजी महाराज मांधाता से कहते हैं कि महाराज! इतना कहकर देवेश्वर भगवान विष्णु वहीं अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात उन समस्त महर्षियों ने उक्त व्रत का पूर्णरुप से पालन किया। नृपश्रेष्ठ! इसी प्रकार तुम्हें भी इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- युधिष्ठिर ! यह दुर्धर्ष व्रत मनुष्य को सब पापों से मुक्त करनेवाला है । आमलकी एकादशी का यह व्रत स्वास्थ्य, आध्यात्म, प्रकृति और विज्ञान के तथ्यों को सुंदर ढंगे से स्वयं में समेटे हुए है।


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