फिर वही क्षेत्रवाद

By: Mar 8th, 2017 12:02 am

फिर वही क्षेत्रवाद और हिमाचल विधानसभा सत्र में यही ढाल और तलवार। दोनों प्रमुख दल मुद्दों से बड़े क्षेत्रवाद पर पहुंच गए और जहां पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल और सत्ता के सरताज वीरभद्र सिंह के बीच अतीत तथा भविष्य के बीच क्षेत्रवाद एक सियासी सफर से अलहदा नहीं। वीरभद्र सिंह ने राजनीतिक दौड़ कांगड़ा की तरफ क्या लगाई, क्षेत्रवाद की पूंछ में आग लग गई। फिर सेब के प्रतीकात्मक प्रभाव का क्षेत्रवाद और निचले हिमाचल की आवाज बनकर प्रेम कुमार धूमल गूंजे तो सदन में ‘इमोशनल ड्रामा’ शुरू हो गया। सवाल यह कि राजनीति में इस बार भी क्षेत्रवाद का फल मीठा होगा या यूं ही दिल बहलाने के लिए चर्चा मुख्य मुद्दों से भटक रही है। क्षेत्रवाद पर हुई चर्चा से हिमाचल के सियासी आचरण को समझने में हमेशा आसानी हो जाती है और यहां की विक्षुब्ध मानसिकता के ये चिट्ठे बार-बार लिफाफों से बाहर निकलते हैं। पंजाब से निकल कर शामिल हुए पर्वतीय क्षेत्रों की सियासी महत्त्वाकांक्षा का स्वाभाविक समाधान भले ही हिमाचल को विशाल बना गया, लेकिन राजनीतिक नेतृत्व ऊपरी इलाकों के वर्चस्व में रहा। इसे संयोग ही कहेंगे कि कांगे्रस एक बार भी अपना मुख्यमंत्री सम्मिलित हिमाचल की भुजाओं में नहीं तराश पाई, जबकि क्षेत्रवाद की इस तपिश ने चार बार भाजपा के सपनों को जमीन दी। ऐसे में क्षेत्रवाद एक ऐसे पहरावे की तरह है, जिसे पहनकर भाजपा ने निचले हिमाचल में मुख्यमंत्री का पद बार-बार तराशा, लेकिन क्या यही अवतार इस बार भी जन्म लेगा। राजनीति की सूइयां अगर फिर क्षेत्रवाद पर अटक रही हैं, तो चुनौती व महत्त्वाकांक्षा कांग्रेस के भीतर भी है और यह भी कि भाजपा को क्षेत्रवाद का संबल इस बार नारे से अधिक कुछ देगा या नहीं। जिस क्षेत्रवाद ने भाजपा को शांता कुमार और प्रेम कुमार धूमल दिए, क्या उसी परंपरा का निर्वहन केंद्रीय मंत्री जगत प्रकाश नड्डा या हिमाचल में किसी खट्टर या फड़नवीस के रूप में होगा। यह सवाल इसलिए भी कि भाजपा की पिछली सत्ता के दौरान कांगड़ा माइनस, सियासी प्रभाव का जो मूल्यांकन शुरू हुआ वह औंधे मुंह गिरा। जाहिर तौर पर उस दौर की सियासी अशांति ने भाजपा सरकार को विचलित किया और तब क्षेत्रवाद से क्षत्रपवाद पैदा करके कांगड़ा में हार-प्रहार के बीच नेता बंटे। क्षत्रपवाद को कांगे्रस नेतृत्व में भी पनाह मिलती रही है, लेकिन भाजपा के क्षत्रपों के बीच जो सीमांकन हुआ, उसने कांगड़ा में पार्टी की जड़ें खोद दीं। बेशक तत्कालीन क्षत्रपों ने शांता कुमार की महिमा को छीन लिया, लेकिन इस नेता को अप्रासंगिक बनाने की होड़ में पार्टी की लुटिया डूब गई। क्षेत्रवाद के तीसरे फलक पर पल रहा परिवारवाद इससे भी घिनौना व असंवेदनशील है तथा युवा नेताओं की पौध व संभावना को नष्ट कर रहा है। क्षेत्रवाद से निश्चित रूप से जो कंस्टिट्युअन्सी विकसित होती है, उसका लाभ भाजपा और कांगे्रस ने उठाया है, फिर भी कमाल की पोस्चरिंग में दोनों पार्टियां खुद को निर्दोष बनाने की कोशिश में इकबालिया बयान देती हैं। एक दौर में सेब लॉबी का सशक्तिकरण अगर क्षेत्रवाद था, तो फिर आम, लीची, किन्नू और गलगल को पहचान दिलाने का संतुलन खोजा गया। शिमला केंद्रित राजनीतिक वर्चस्व ने आंख खोलकर देखा तो धर्मशाला में हिमाचल भवन नजर आया। भाजपा ने इसी प्रतीक पर हमला करके मिनी सचिवालय की उत्पत्ति तो की, लेकिन कांगे्रस ने आगे बढ़कर विधानसभा परिसर और अब प्रदेश की दूसरी राजधानी के जरिए राजनीतिक संताप को आत्मसंतोष से भर दिया। दूसरी राजधानी बहस का ऐसा मुखौटा पहनकर खड़ी हो गई कि अब मजबूरन भाजपा को पुनः क्षेत्रवाद की ओट में सियासत की दीवार खड़ी करनी पड़ रही है। विवाद तो अब असली राजनीतिक राजधानी का है। अगर यह शिमला के साथ खड़ी होती है तो क्षेत्रवाद का हौवा भी वहीं दिखाई देता है और अगर वीरभद्र सिंह इसे कांगड़ा के छोर पर जमाने में कामयाब हो गए, तो इस मुद्दे को ही जोर का झटका लग सकता है। हिमाचल में क्षेत्रवाद असल में सियासत का ऐसा चरित्र बन चुका है, जो नेताओं के वर्चस्व की रखवाली करता है। जब शांता कुमार ने प्रदेश विश्वविद्यालय का एक अध्ययन केंद्र धर्मशाला में स्थापित किया, तब क्षेत्रवाद शांत हुआ या जब प्रेम कुमार धूमल ने केंद्रीय विश्वविद्यालय का युद्धक्षेत्र देहरा को बनाया, तब अशांत हुआ। क्षेत्रवाद अगर क्षेत्रीय विकास का नारा या सियासी संतुलन का वादा है, तो वीरभद्र ने दूसरी राजधानी की प्रासंगिकता खोजी, लेकिन असली पहचान तो शिमला सचिवालय की रूह से जुड़ी है। क्या यह रूह दूसरी राजधानी के साथ सीधे जुड़कर क्षेत्रवाद को खत्म कर देगी या कल कोई और प्रतीक खड़ा होकर, किसी नेता की मासूमियत को अभिव्यक्त करेगा।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App