भीरु नहीं, वीर गढ़ें

By: Mar 11th, 2017 12:05 am

बच्चा जन्म से कायर नहीं होता। उसकी नैसर्गिक प्रकृति इतनी निर्भीक होती है कि वह सांप, चूहे, बिल्ली, बंदर जो भी पास आए, पकड़ने को ही दौड़ता है। उसे प्रत्येक वस्तु खेल की, विनोद की वस्तु लगती है और संभवतः वह इसीलिए बिना हिचक के प्रत्येक वस्तु की ओर दौड़ पड़ता है। बच्चे के मस्तिष्क में पूर्वारंभ में भय की भावना न जगाई जाए, तो हमारा विश्वास है कि वह कभी कायर नहीं हो सकता। घर का वातावरण और माता-पिता का त्रुटिपूर्ण संरक्षण ही उन्हें भीरु बनाता है।  भारतवर्ष की अतीतकालीन परंपराओं की दृष्टि से यह अभिशाप सा लगता है कि हमारे बच्चे डरपोक बनें। वीर प्रसविनी वसुंधरा के लाड़लों को तो वीर, साहसी और बांकुरा ही होना चाहिए। इस निर्माण में आप बहुत अधिक सहयोग दे सकते हैं। निर्भीक प्रकृति के बालकों में भय की भावना पैदा कर देने का बहुत कुछ उत्तरदायित्व भी अभिभावकों का है। व्यक्तिगत सावधानी और समीपवर्ती वातावरण को शुद्ध रखकर अपने बच्चों को निर्भय प्रकृति का बना सकते हैं। माता-पिता की अविश्वासी प्रकृति हमारी दृष्टि से मुख्य विकार है। उन्हें अपने बालकों पर विश्वास नहीं होता और वे छोटी-छोटी आशंकाओं को लेकर बालकों की क्रीड़ाओं में हस्तक्षेप करते रहते हैं। इसमें केवल परावलंबी हो जाने का दोष नहीं है, वरन् बच्चे का अपनी ही शक्तियों के प्रति विश्वास उठने लगता है। वह अपने दीन-दयनीय स्थिति वाला समझने लगता है, कायरता की मुख्य जड़ यही है। बच्चे की कुशलता की देखरेख तो रखिए, पर इतनी नहीं कि उसकी अपनी क्रियाशक्ति परावलंबी हो जाए। इसमें इतना ही संभव है कि बच्चा कहीं फिसल कर गिर पड़े और मामूली चोट आ जाए या अंगुली में थोड़ा जल जाए। घर में और किसी खतरे की आशंका नहीं होती। यदि हो भी तो कारण दूर कर देना चाहिए, पर बच्चे के कार्यों में जितना कम संभव हो, हस्तक्षेप करना चाहिए। स्वानुभूतियां बालक का नैसर्गिक विकास करती हैं, प्रबुद्ध और निर्भय बनाती हैं। अज्ञान और असत्य मूलक विश्वास से बच्चों को परिचित करा देना बहुत बड़ी भूल है। मनुष्य का जैसा विश्वास होता है, वैसा ही उसके कार्यों का फल भी उसे मिलता है। यदि विश्वास सत्य, ज्ञान और प्रेममूलक होगा तो उससे विकास होगा। इसके विपरीत यदि विश्वास असत्य और अज्ञानपरक हुआ, तो वह घृणा और पतन की ओर ले जाएगा। बहुधा माताएं बच्चों को चुप करने के लिए या भुलावे के लिए बाबाजी, सिपाही, हौवा, भूत, बुढि़या, डायन, जू-जून आदि का भय दिखाती हैं। बेचारा बच्चा डरकर दुबक जाता है। माताएं अपनी इस सफलता पर बहुत प्रसन्न होती हैं, पर उसका बुरा असर बच्चों के जीवन पर पड़ता है, वह सदा के लिए भीरु बन जाते हैं। उनमें अंधविश्वास की प्रकृति जोर पकड़ने लगती है, बालकों को कमजोर बनाने में इसका मुख्य हाथ है। बच्चों के आगे डरावने दृश्यों का वर्णन या भावोत्पादक कहानियां नहीं सुनानी चाहिए। भूत-मसानों के किस्से और रोमांचकारी घटनाओं के चित्रण करना बड़ी भूल होती है। इस प्रकार की बातों से उसके प्रसुप्त मन में भयोत्पादक ग्रंथियां जम जाती हैं, जो बाद में अपना कार्य प्रारंभ कर बच्चों को डरपोक बना देती हैं। प्रत्येक माता-पिता का यह कर्त्तव्य है कि यदि उन्हें ऐसा मालूम पड़े कि किसी बात को लेकर बच्चे के मस्तिष्क में भय पैदा हो रहा है, तो उसे तुरंत दूर कर दिया जाए, ताकि वैसी भावना मस्तिष्क में जड़ न जमा ले।


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