महत्त्वाकांक्षा की दौड़

By: Mar 25th, 2017 12:05 am

ओशो

हम सभी दौड़ रहे हैं। सारे जगत में एक पागलपन पैदा कर रहे हैं। इसीलिए इतनी बेचैनी है, इतनी परेशानी है , इतनी प्रतिस्पर्धा है , इतना संघर्ष है। जिस देश में जितने ज्यादा लोग पागल होते हैं, समझ लेना चाहिए कि उस देश में उतनी ज्यादा शिक्षा फैल गई है। आज अमरीका सबसे ज्यादा शिक्षित देश है। आज सबसे ज्यादा आदमियों को पागल वही कर रहा है। क्योंकि हर आदमी एक ऐसी दौड़ में है, जो पूरी नहीं हो सकती और अगर पूरी  हो भी जाए तो दौड़ के अंत में पता चलता है कि हाथ खाली रह गए और कुछ भी नहीं मिला।

एक बहुत ही बुनियादी भ्रम है कि आनंद कहीं पहुंचने पर मिलेगा। आज की सारी शिक्षा इसी भ्रम को पैदा कर मजबूत करती है। वह कहता है, फलां मुकाम पर पहुंच जाओ तो आनंदित हो सकते हो। वह डिग्री या वह प्रमाण पत्र मिल जाता है , लेकिन आनंद नहीं मिलता। तब हाथ में पकड़े हुए कागज का बोझ घबराने वाला हो जाता है, लेकिन हम आदमी को फिर भी दौड़ाते रहते हैं। वह प्राइमरी में पढ़ता है, तो उससे कहते हैं कि हाई स्कूल में पहुंचो, हाई स्कूल में पढ़ता है तो कहते हैं कि लक्ष्य है यूनिवर्सिटी में। यूनिवर्सिटी के बाहर निकलता है, तो हम कहते हैं कि अब जिंदगी में विवाह में वह आनंद तुम्हें मिल जाएगा।  सब कहानियां पढ़ें तो एक बड़ी मजेदार बात मिलती है। सभी में लिखा होता है कि इस तरह दोनों की शादी हो गई और वे दोनों सुख से रहने लगे, हालांकि ऐसा होता नहीं। इसके बाद की कहानी कोई सुनाता नहीं, क्योंकि वह बेहद खतरनाक मोड़ पर पहुंच जाती है, उलझन भरी हो जाती है। सच्चाई यह है कि न तो शिक्षित होने से आनंद मिल पाता है, न विवाह से, न संपत्ति से और न पद-प्रतिष्ठा से। काश, दुनिया के सब लोग जो बड़े पदों पर पहुंच जाते हैं, ईमानदारी से कह सकें, तो वे कहेंगे कि उन्हें वास्तव में जीवन में कुछ भी नहीं मिला, लेकिन इतना कहने की हिम्मत वे नहीं जुटा सकते। उसका कारण है जो आदमी जिंदगी भर दौड़ा हो और जब उसने उस चीज को पा लिया हो, जिसके लिए वह दौड़ता रहा, अब अगर वह लोगों से कहे कि कुछ भी नहीं मिला, तो लोग कहेंगे कि तुम व्यर्थ ही दौड़े।  तुम्हारा तो जीवन बेकार हो गया। अब वह अपने अहंकार को बचाने की कोशिश करता है। नंबर एक होना बहुत खतरनाक है। पीछे खड़े सब लोग प्रार्थना करते हैं कि यह आदमी कब मर जाए, कब विदा हो जाए, कब यह जगह खाली हो और हम वहां पहुंच सकें । हम अपने बच्चों को भी उसी दौड़ से भर देते हैं, जिससे हमारे बूढ़े भरे हुए हैं। महत्त्वाकांक्षा की दौड़ से, एंबिशन की दौड़ से। जिस आदमी को एक बार महत्त्वाकांक्षा का पागलपन चढ़ जाता है, उसका जीवन विषाक्त हो जाता है। उसके जीवन में फिर कभी शांति नहीं होगी, फिर कभी आनंद न होगा और उसके जीवन में फिर कभी विश्राम न होगा। मेरी दृष्टि में ठीक शिक्षा उसी दिन पैदा हो पाएगी, जिस दिन शिक्षित व्यक्ति गैर महत्त्वाकांक्षी होगा, जिस दिन शिक्षित व्यक्ति कतार में पीछे खड़े होने में भी राजी होगा।


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