विजय महोत्सव
( डा. सत्येंद्र शर्मा, चिंबलहार, पालमपुर )
फिर केसरिया रंग का, ऐसा चढ़ा खुमार,
विजय महोत्सव बन गया, होली का त्योहार।
होली खेली इस कद्र, यूपी में लठमार,
बुआ, बबुआ गिर पड़े, हाथ हुआ बेकार।
धर्मयुद्ध था नीति का, जीत लिया मैदान,
डाकू छिपते फिर रहे, बचा रहे हैं जान।
गांठ जोड़ कर खा गए, आज क्लेश जी मात,
सारी दुनिया जानती, इसमें किसका हाथ।
जनादेश सर्वोच्च है, रचा गजब इतिहास,
आखिर चौदह साल का, खत्म हुआ वनवास।
जन ने जनता दल चुना, हुआ पूर्व आभास,
एक्सप्रेस-वे भाया नहीं, बुलेट ट्रेन की आस।
मोहरा तेरा पिट गया, अब क्यों करता क्लेश,
गुंडागर्दी त्याग दे, शर्म बची यदि शेष।
अब तो भ्रष्टाचार पर, कसकर लगे लगाम,
जनता को गुठली नहीं, चूस लिए सब आम।
निर्धन, अति निर्धन हुए, अति निर्धन, कंगाल,
हाथी उन्हें निचोड़ता, होता मालामाल।
उड़ती है लैंबोर्गिनी, आसमान पर ध्यान,
निर्धन, मध्यम वर्ग की, ताकत को पहचान।
दलित गिरे पाताल में, हीरे गिनते आप,
हाथी भाग खड़ा हुआ, हुआ सूपड़ा साफ।
शोषित वंचित, पीडि़त, निर्धन की है जीत,
मुखिया अब तो बन गए, इन सबके मधुमीत।
झाड़ू ऐसी फेर ली, अपने ऊपर आप,
दिल्ली भी संभली नहीं, अपशब्दों का श्राप।
वोटर देता है नहीं, अपने मन की बात,
तो फक्कड़ को बांट दी, वोटों की सौगात।
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