कर्मयोग की शिक्षा

By: Apr 8th, 2017 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे… 

द्वार के निकट जाकर बुलाने से या खटखटाने से जैसे द्वार खुलकर विश्व में प्रकाशधारा प्रवाहित होती है। राजयोग में केवल इसी विषय की आलोचना है। अपनी वर्तमान शारीरिक अवस्था में हम बड़े ही अन्यमनस्क हो रहे हैं। हमारा मन इस समय सैकड़ों और दौड़कर अपनी शक्ति क्षय कर रहा है। जब कभी मैं व्यर्थ की चिंताओं को छोड़कर ज्ञान लाभ के उद्देश्य से मन को स्थिर करने की चेष्टा करता हूं, तब न जाने कहां से मस्तिष्क में हजारों बाधाएं आ जाती हैं, हजारों चिंताएं मन में एक संग आकर उसको चंचल कर देती हैं। किस प्रकार से इन सबका नियंत्रण कर मन को वशीभूत किया जाए, यही राजयोग का एकमात्र आलोच्य विषय है। अब कर्मयोग अर्थात कर्म द्वारा ईश्वर लाभ की बात लो। संसार में ऐसे लोग बहुत देखे जाते हैं, जिन्होंने मानो किसी न किसी प्रकार काम करने के लिए जन्म ग्रहण किया है। उनका मन केवल चिंतन राज्य में ही एकाग्र होकर नहीं रह सकता। जिसे आंखों से देखा जा सकता है और हाथों से किया जा सकता है, ऐसे मूर्त कार्य में ही उनका मन एकाग्र होता है। इस प्रकार के लोगों के लिए एक विज्ञान की आवश्यकता है। हममें से प्रत्येक किसी न किसी प्रकार के काम में लिप्त है, परंतु हम लोगों में अधिकतर लोग अपनी अधिकांश शक्ति का अपव्यय करते हैं, कारण यह है कि हमें कर्म का रहस्य ज्ञात नहीं है। कर्मयोग इस रहस्य की व्याख्या करता है और कहां, किस भाव से कार्य करना होगा। प्रस्तुत कर्म में किस भाव से हमारी समस्त शक्ति का प्रयोग करने से सर्वपेक्षा अधिक लाभ होगा, इसकी शिक्षा देता है। हां, कर्म के विरुद्ध, यह कहकर जो प्रबल आपत्ति उठाई जाती है कि दुःखजनक है। इसका भी विचार करना होगा, सब दुःख और कष्ट आते हैं आसक्ति से। मैं काम करना चाहता हूं, मैं किसी मनुष्य का उपकार करना चाहता हूं और नब्बे में एक यही देखा जाता है कि मैंने जिसकी सहायता की है, वह व्यक्ति सारे उपकारों को भूलकर मुझसे शत्रुता करता है। फल यह होता है कि मुझे कष्ट मिलता है। इस प्रकार की घटनाएं ही मनुष्य को कर्म से विरक्त कर देती हैं और इन दुखों और कष्टों का भय ही मनुष्यों के कर्म और उद्यम को नष्ट कर देता है। किसकी सहायता की जा रही है अथवा किस कारण से सहायता की जा रही है, इत्यादि विषयों पर ध्यान न रखते हुए अनासक्त भाव से केवल कर्म के लिए कर्म करना चाहिए। कर्मयोग यही शिक्षा देता है। कर्मयोगी कर्म करते हैं, कारण, यह उनका स्वभाव है, वे अनुभव करते हैं कि ऐसा करना ही उनके लिए कल्याणप्रद है, इसको छोड़ उनका और कोई उद्देश्य नहीं रहता। वे संसार में सर्वज्ञता का आसन ग्रहण करते हैं, कभी किसी वस्तु की प्रत्याशा नहीं रखते। वे जान बूझकर दान करते जाते हैं, परंतु प्रतिदानस्वरूप वे कुछ नहीं चाहते, इसी कारण वे दुखों से मुक्ति पाते हैं। जब दुख हमको ग्रसित करता है, तब यही समझना होगा कि यह केवल ‘आसक्ति’ की प्रतिक्रिया है। अब इसके बाद, भावुक और प्रेमी लोगों के लिए भक्तियोग है। भक्त चाहते हैं, भगवान से प्रेम करना।  वे धर्म के अंगस्वरूप क्रियाकलापों की सहायता लेते  हैं और पुष्प, गंध, सुरम्य मंदिर, मूर्ति इत्यादि नाना प्रकार के द्रव्यों से संबंध रखते हैं। तुम लोग क्या यह कहना चाहते हो कि वे भूल करते हैं?


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