खून बनकर बिकती शराब

By: Apr 17th, 2017 12:02 am

आखिर शराब पानी बनकर तो बिकती नहीं, और इसलिए हिमाचल में भी बिकी खून बनकर। यकीन न हो तो उस विरोध को खंगाल लें जिसे गांव-कस्बे की औरतें अपने कंधों पर उठाकर चल रही हैं। मांग सिर्फ इतनी है कि उनकी बस्ती में ही शराब का ठेका क्यों? आधी आबादी का यह शोर मात्र नहीं, लोकतांत्रिक अधिकार भी है जो कमोबेश हर ठेके के बाहर इसे बंद कराने की मांग करता है। इससे पहले साहित्यकारों ने भले ही अपने-अपने अंदाज में मयखाने की बड़ाई की होगी, लेकिन घर के चूल्हे ने इसे अपनी आग के साथ देखा है। उस तपिश को मालूम है जो कभी पत्नी, कभी मां या कभी बेटी के रूप में, शराब के रिश्तों में जलती होगी। शराब के अत्यधिक सेवन से जिनके बेटों का लिवर खराब हुआ, पति या बाप की असामयिक मौत हो गई, उस मां, पत्नी या बेटी के आंसुओं का रंग खून के कतरों से भिन्न नहीं। इसलिए जब गुस्सा नारी आंदोलन बनकर फूट रहा है, तो इसे भी समझना होगा। यह दीगर है कि आबकारी विभाग अपने वार्षिक लक्ष्यों की लॉटरी में बिकते ठेकों को नसीब मानता है और इसी अनुपात में प्रदेश उम्मीद लगा कर बैठा है। शराब सेवन पर हिमाचल स्पष्ट तौर पर जिस विभाजक रेखा पर खड़ा है, वहां रिश्ते से बड़ा व्यापार और समाज से बड़ी  शराब नजर आ रही है। विभागीय कामकाज में गुणवत्ता देखें, तो तमाम अड़चनों के बीच ठेकों की नीलामी लक्ष्य से पीछे नहीं हटी और नतीजे स्पष्ट करते हैं कि इसमें आर्थिक अमृत कितना है। विभाग ने अपने औचित्य के उपवन में प्रदेश के लिए राजस्व ही तो पैदा किया। इस लिहाज से बुरी आदत होते हुए भी शराब पीने की महफिल में आबकारी विभाग के पैमाने राजस्व से भरते हैं, तो इस मेहनत का रंग भी परखना पड़ेगा। क्यों शराब बेचना इतना आसान हो गया कि सरकारें सामाजिक आबरू को भी एक कोने में टांग कर फैसला लेती हैं। आबकारी विभाग के गणित से अलग स्वास्थ्य विभाग की व्यस्तता को समझा जाए तो अस्पतालों के बिस्तर बताते हैं कि ठेकों की नीलामी ने किस कद्र इनसान को लिटा दिया है। हिमाचली अस्पतालों में मरीजों की संख्या में वे शख्स भी शामिल हैं, जो जिंदगी को किसी ठेके के आगे हर दिन नीलाम करते रहे। एक बोतल राजस्व को कितना भरती होगी या ठेकेदार को कितना अमीर बनाती होगी, मगर सत्य यह भी है कि यही बोतल गरीब की झोंपड़ी जलाती है और जब घर का मुखिया तबाह होता है, तो परिवार लावारिस हो जाता है। ऐसे में शराबबंदी के पीछे औरतों के तर्क निहत्थे नहीं और इसलिए ग्राहक की टोह लेते शराब ठेकों के खिलाफ माहौल हिमाचल में भी गर्म हो रहा है। माननीय उच्चतम अदालत के निर्देश के बाद शराब और सड़क बीच जो पैमाइश शुरू हुई, उससे इस कारोबार के महत्त्व का पता चल रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर शराब से अधिक नटखट कोई नहीं और हिमाचल में इससे ज्यादा कमाऊ पूत सरकार के हिसाब से कोई नहीं। निगम व बोर्ड हमेशा से घाटे में रहना पसंद करते हैं, लेकिन शराब बेच कर भी आबकारी एवं कराधान विभाग मोटी कमाई कर लेता है। वाकई शराब की बोतल न जाने कितनों का घर पाल रही है और यह बाजार व्यापार से लेकर हर चुनाव की धार बता रही है। आश्चर्य तो यह कि बंद ठेकों के बावजूद यह बिकती रहती है और अवैध उत्पादन से भी किसी खेत के मुकाबले ज्यादा पैदावार कर लेती है। इन परिस्थितियों में औरतों का संघर्ष अगर नहीं समझा, तो राजस्व की ऐसी कोख से केवल जहर ही मिलेगा। बेरोजगारी भत्ते को उपलब्धि मानकर नगरोटा में भले ही शानदार रैली हो जाए, लेकिन जिस परिधि में शराब बिकती है, वहां हर दिन मौत की रैली होती है। यह फैसला सरकार को करना है कि हिमाचली मुंडा ठेके के बाहर ज्यादा बिगड़ रहा है या बेरोजगारी भत्ते से संवर जाएगा।


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