गणेश पुराण

By: Apr 1st, 2017 12:05 am

वज्रांग की पतिव्रता स्त्री भी अपने पति के साथ-साथ शीत-ऊष्मादि के कष्ट सहन करती हुई तपोरत रहने लगी। तपस्या करते हुए उन दोनों को इंद्र कभी मेष रूप में तो कभी भुजंग रूप में, कभी मेद्य रूप में तो कभी झंझा रूप में बहुत देने लगा…

मैं आप दोनों के गौरव से इंद्र को बंधन मुक्त करता हूं। वस्तुतः मेरी रुचि तो तप करने की है और मैं आपसे निवेदन करता हूं कि आप मुझे आशीर्वाद दें कि आपकी कृपा से मेरा तप निर्विघ्न समाप्त हो। दैत्य वज्रांग के मौन हो जाने पर ब्रह्मा जी बोले, वत्स! तुमने अपने व्यवहार से मुझे सचमुच ही प्रसन्न कर दिया है। इस उपलक्ष्य में मैं तुम्हें एक उपहार देना चाहता हूं। उस समय ब्रह्मा जी ने एक कमलनयनों वाली अत्यंत सुरूपा कन्या का सर्जन किया और उसका ‘वारांगी’ नाम रखकर वज्रांग को पत्नी रूप में उपहार के स्वरूप दे दी। वज्रांग उस रूपसी को पाकर प्रसन्न हो उठा और ब्रह्मा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करके उस वाला के साथ तप के लिए बन को चल दिया। वन में जाकर उस दैत्य ने ऊर्ध्वबाहु होकर एक सहस्र वर्षों तक घोर तप किया। उस तप के फलस्वरूप उसकी बुद्धि निर्मल हो गई। तदोपरांत उसने मुख नीचे और टांगें ऊपर करके पंचाग्नि तप किया। पंचाग्नि में तपने के उपरांत उस दैत्य ने जल के भीतर ठहर कर तप करना प्रारंभ किया। वज्रांग की पतिव्रता स्त्री भी अपने पति के साथ-साथ शीत-ऊष्मादि के कष्ट सहन करती हुई तपोरत रहने लगी। तपस्या करते हुए उन दोनों को इंद्र कभी मेष रूप में तो कभी भुजंग रूप में, कभी मेद्य रूप में तो कभी झंझा रूप में बहुत कष्ट देने लगा। वज्रांग की पत्नी अपने को अकारण कष्ट देने वाले इंद्र पर रुष्ट होकर ज्यों ही श्राप देने को उद्यत हुई, त्यों ही ब्रह्मा जी प्रकट होकर बोले, वत्स! तुम्हारे पति का तप सफल हो गया है। तुम क्रोध करके उस तप को असफल मत बनाओ। संयम और शांति ही तपस्वियों के आभूषण हैं। इसके उपरांत ब्रह्मा जी दैत्य से संबोधित होकर बोले, पुत्र! वर मांगों, मैं तुम्हारे सभी मनोरथ पूरे कर दूंगा। ब्रह्मा जी को प्रणाम करके वज्रांग बोला, देवादिदेव! मेरे सारे भाव शुद्ध हो जाएं, तप में रुचि बनी रहे, मेरा शरीर और मेरे लोक अक्षय हों। ब्रह्मा जी ‘तथास्तु’ कहकर अपने लोक को चले गए और इधर वज्रांग आप्तकाम होकर उपरत हो गया। तप की समाप्ति पर उसे भूख सताने लगी, परंतु उसे अपनी पत्नी कहीं दिखाई न दी। भोजन की इच्छा से जब वह गिरि-गह्वर में प्रविष्ट हुआ तो उसने अपने हाथों से अपने शरीर को ढके आर्त्तक्रंदन करती हुई अपनी पत्नी को देखा। पत्नी  को प्रेम से आश्वस्त करता हुआ वज्रांग बोला, देवी! किस दुष्ट का काल निकट आ गया है कि उसने तुम्हारा अपकार करने का दुस्साहस किया? मुझे उस दुष्ट का नाम शीघ्र बताओ ताकि उसे अपने किए का फल मिल जाए। करुण क्रंदन करती हुई वह सती नारी बोली, प्राणेश! दुष्ट इंद्र ने ही मुझ अभागिन का सतीत्व नष्ट किया है। उसने मेरा इस प्रकार से अपमान किया है कि जैसे मेरा कोई स्वामी ही न हो। मैं तो अब जीना नहीं चाहती, परंतु जीने से पूर्व उस नीच को उसकी नीचता का फल अवश्य देना चाहती हूं, नहीं तो मर कर भी मेरी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी। स्वामिन! आपने तो ब्रह्मा जी से अहिंसा भाव मांग रखा है, अतः आपसे मेरी प्रार्थना है कि मुझे दुख और शोक रूपी महासागर से तारने वाला  एक पुत्र प्रदान करने की कृपा करें।


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