छिंज हमारी, माली उनकी

By: Apr 19th, 2017 12:05 am

मेले और मंच की हिमाचली पहचान का दस्तूर यह कि ऐसे वार्षिक आयोजनों की केवल रौनक हमारी होती है, जबकि  माली लूटने का सबब हमारी जेब खाली कर जाता है। सांस्कृतिक समारोहों में कलाकार और मेले की कुश्ती में पहलवान हमेशा हिमाचल के बाहर से आते हैं। हिमाचली अखाड़े की मिट्टी जो शोहरत उगाती है, उसे कोई मिंदा-छिंदा बटोर कर ले जाता है। इस वक्त मेले पूरे यौवन पर हैं और इसी से जुड़ी कुश्तियां, हर दिन जिस नायक को ढूंढती हैं वह गैर हिमाचली होकर भी हक से सम्मान और राशि हासिल करता है। वर्षों पहले जिस परंपरा ने मेलों के जरिए व्यापार, कला, खेल और संस्कृति के संरक्षण में योगदान किया, वह आज सरकारी आयोजन की धूल से भरा हुआ है। न टमक की थाप पर नृत्य और न ही अखाड़े की मिट्टी में प्रदेश की पहलवानी का पसीना। यह दीगर है कि इस दौरान मेले बड़े हो गए और सांस्कृतिक समारोहों ने भी तरक्की कर ली। पहले मेलों में सब कुछ  प्रदेश का होता था, लेकिन अब हिमाचल केवल मेजबानी में खुश है। इसे हम अपनी भौतिक तरक्की मान लें कि साल भर में मेलों और सांस्कृतिक समारोहों में अरबों का व्यापार होता है। बेशक यह अंतर करना कठिन है कि जिला, राज्य, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय  स्तर पर इन मेलों व समारोहों में अंतर होता क्या है। कमोबेश हर शक्तिशाली राजनीतिक नेता अपने चुनाव क्षेत्र में कुछ ग्रामीण मेलों व सांस्कृतिक समारोहों की हैसियत बढ़ाकर खुद अपनी पहलवानी साबित करता है। आश्चर्य यह कि आयोजनों  के धमाल के बीच किसी ने यह नहीं सोचा कि अखाड़ों को किस प्रकार हिमाचली पहलवानी का सबब बनाया जाए। हिमाचली दंगल को नया नाम देने के बजाय मेलों के अखाड़े को सम्मानित करना होगा। प्रदेश के जॉनी चौधरी व गौरव राणा सरीखे पहलवानों ने अगर हिमाचल का नाम रोशन किया है, तो उन्हें प्रदेश के बाहर ही अखाड़े मिले। ऐसे में जब ग्रामीण खेलों  की बात आती है, तो मेलों की छिंज को आजमाने की जरूरत है। प्रदेश के  ग्रामीण विकास विभाग को ऐसे प्रयास करने चाहिएं, ताकि हर मेला स्थल को खेल स्थल के रूप में भी मान्यता मिले। खास तौर पर अखाड़ों के संचालन में यह प्रयत्न खेल विभाग भी करे कि कच्ची मिट्टी पर कमर तोड़ते  युवाओं को धीरे-धीरे मैट पर कुश्ती के सांचे में परिपूर्ण किया जाए। प्रदेश में खेल आयोजनों की दृष्टि से छिंज का महत्त्व आज तक समझा ही नहीं गया, इसलिए जब जहां वार्षिक दंगल होते हैं, वहां जम्मू, पंजाब व हरियाणा से आया कोई पहलवान हिमाचली अखाड़े की शान को बटोर कर चला जाता है। इस बार भी यही हो रहा है, जबकि  गांव की छिंज बड़ी हो गई है। कांगड़ा के गंगथ की छिंज में अगर पहलवानों के नाम इस बार टै्रक्टर व कार जैसे उपहार सजे हैं, तो समाज के इस योगदान को हम हिमाचली प्रतिभा से कब जोड़ पाएंगे। प्रदेश का पुलिस महकमा हिमाचली पहलवानी को नए आयाम देकर ग्रामीण युवाओं का मार्गदर्शन कर सकता है। बिलासपुर के चैहड़ में जिस प्रकार दंगल की मान्यता में समाज एकत्रित हुआ, उस मॉडल को आधार बना कर ऐसी अधोसंरचना का निर्माण पूरे प्रदेश में संभव है, ताकि नूरपुर के सोनू, चंबा के गनी या मंडी के तेज सिंह जैसे हिमाचली पहलवानों को अभ्यास के अलावा उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था मिल सके। दूसरी ओर सांस्कृतिक समारोहों में हिमाचली लोक गीत, संगीत, नृत्य व नाटिकाओं का मंच स्थापित नहीं होगा, तो हम केवल ‘नाइट’ मनाने में धन, ऊर्जा व अपनी तालियां बूढ़ी कर देंगे। विडंबना यह है कि सांस्कृतिक समारोह अब प्रशासनिक व राजनीतिक फरमाइश सरीखे हो गए हैं और जहां दलाल के मार्फत सारी कमाई बाहरी कलाकार की ‘नाइट’ सजाने में गंवाई जा रही है। ये सांस्कृतिक समारोह अगर ‘नाइट’ की परिभाषा के बाहर संवारे जाएं, तो मंच पर हिमाचली कलाकार बड़ा होता जाएगा और दर्शक-श्रोता भी प्रदेश के कला पक्ष को सुदृढ़ बना देंगे। प्रदेश में मेलों और समारोहों की फेहरिस्त के बीच इतना व्यापार खड़ा हो गया कि अगर वार्षिक बजट बनाएं, तो यह आंकड़ा सौ करोड़ से अधिक होगा। इन मेलों व सांस्कृतिक समारोहों में सीधी सरकारी सहायता तो शायद कम हो, लेकिन प्रशासनिक व सामाजिक हस्तक्षेप से इतनी राशि जरूर पैदा होती है, जिसके सदुपयोग से हिमाचली लोक गीत-संगीत व नृत्य के अलावा ग्रामीण खेलों को प्रश्रय मिल सकता है। मेला स्थलों पर हुए अतिक्रमण को हटाने के अलावा कुछ नए मैदानों की रूपरेखा में अर्जित धन का इस्तेमाल करना होगा। यह कार्य केवल एक स्वतंत्र मेला एवं समारोह प्राधिकरण के तहत ही संभव हो पाएगा।


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