पास हुए सरकारी स्कूल

By: Apr 27th, 2017 12:02 am

रविंद्र सिंह भड़वाल  लेखक, दिव्य हिमाचल से संबद्ध हैं

हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड ने 12वीं कक्षा के वार्षिक परिणामों की घोषणा कर दी है। इस बार के परीक्षा परिणाम कई मायनों में आश्चर्यजनक हैं। इन परिणामों में सरकारी स्कूलों का दबदबा रहा, वहीं बेटियों ने अपनी काबिलीयत को एक बार फिर से बखूबी साबित किया है। 12वीं कक्षा का वार्षिक परिणाम एक बार फिर से उन तमाम दावों को झुठला रहा है, जिसमें निजी स्कूलों को  सरकारी विद्यालयों से बेहतर साबित किया जाता रहा है। 2016-17 के वार्षिक परिणाम हमें सरकारी विद्यालयों के सकारात्मक पहलुओं को देखने की दृष्टि प्रदान कर रहे हैं। ताजा वार्षिक परिणामों में यदि तीन में से दो विषयों के टॉपर सरकारी विद्यालय दे रहे हैं, तो हमें इनकी क्षमता और प्रासंगितकता को नए सिरे से समझना होगा। इसके साथ ही हमें उन धारणाओं का भी निष्पक्षता से विश्लेषण करना होगा, जो सरकारी विद्यालय के साथ नत्थी हैं या फिर यूं कहें कि कर दी गई हैं। बच्चा कौन से स्कूल में दाखिल करवाना है, इसका निर्धारण इस बात को ध्यान में रखकर किया जाता है कि कौन से स्कूल में शिक्षा की गुणवत्ता सही है या जहां से बच्चों को अच्छी नौकरी की गारंटी मिलती है। अब अगर सरकारी और निजी स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता की तलुना करें, तो निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों की शैक्षणिक दक्षता (कुछ अपवादों को छोड़कर) निजी स्कूलों के ‘हाइली क्वालिफाइड’ शिक्षकों की अपेक्षा कहीं बेहतर है। जहां तक विद्यालयों की अन्य बुनियादी सुविधाओं की बात की जाए, तो वे भी निजी स्कूलों की अपेक्षा कहीं बेहतर हैं। अधिक विश्लेषण के लिए आप अपने आसपास देख लें कि कितने निजी स्कूलों के खेल के मैदान, भवन या अन्य सुविधाएं सरकारी स्कूलों से बेहतर हैं। बेशक यहां भी कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन पर्याप्त सरकारी निवेश के कारण सरकारी स्कूलों में अधोसंरचना और गुरुओं की दक्षता व कौशल निजी स्कूलों की अपेक्षा बेहतर है।

इसके बावजूद अगर निजी स्कूलों के प्रति अभिभावकों का मोह बढ़ा है, तो निश्चित तौर पर इसके पीछे कुछ कारण जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं। इसका पहला कारण तो यही कि आज जो ज्यादा दिखता है, वही ज्यादा बिकता भी है। निजी स्कूलों ने अपनी न्यूनतम उपलब्धियों को भी प्रभावी ढंग से पेश करने की कला को बखूबी विकसित कर लिया है। उनका प्रचार तंत्र इतना मजबूत है कि हर उपलब्धि को लोगों, विशेषकर लक्षित जनता के बीच परोसना उन्हें अच्छे से आता है। यही प्रचार तंत्र मूल अंतर पैदा करता है। वहीं दूसरी तरफ जिनको ध्यान में रखकर यह प्रचार-प्रसार किया जाता है, वे भी इससे प्रभावित होने से नहीं बच पाते। उन्हें तो बस अपने बच्चों का सुरक्षित भविष्य चाहिए। इसके लिए स्वाभाविक है कि उनको निजी स्कूलों का विकल्प ही बेहतर नजर आता है। उसके बाद कोई दूसरी वजह नहीं बचती कि वे अपने बच्चों को निजी स्कूलों में न पढ़ाएं। दूसरी तरफ सरकारी विद्यालयों की उपलब्धियों की कोई कमी नहीं है। सरकारी पाठशाला से पढ़कर ही अब तक देश-प्रदेश के विभिन्न ऊंचे व प्रतिष्ठित पदों तक लोग पहुंचते रहे हैं। इन्हीं सरकारी विद्यालयों ने न जाने कितने ही सरकारी अस्पतालों को हुनरमंद डाक्टर, लोक सेवक, विद्यालयों-विश्वविद्यालयों को अध्यापक-प्राध्यापक दिए हैं। सरकारी विद्यालयों से निकलकर ही कई युवाओं ने अपने बड़े-बड़े कारोबारी साम्राज्य खड़े किए हैं। लेकिन सरकारी तंत्र को कभी इन तमाम उपलब्धियों को अभिभावकों के बीच कभी पेश करना ही नहीं आया और न ही कभी हमने इस हकीकत को कभी करीब से समझने की जहमत उठाई। और तो और इन सरकारी विद्यालयों से पढ़कर जो बड़े-बड़े ओहदों तक पहुंचे हैं, उन्होंने भी अपने उदाहरण समाज के बीच रखने के बजाय या अपनी पृष्ठभूमि को भुलाकर, अपने बच्चों के लिए महंगे-महंगे निजी स्कूलों को ही तलाशा। इस परंपरा में सबसे ज्यादा प्रभावित दिहाड़ीदार या गांव-देहात का सामान्य हैसियत वाला आदमी हुआ, जो अपना पेट काटकर भी अपने बच्चों के भविष्य के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता।

उससे भी बड़ा संकट तब पैदा होता है, जब वह व्यक्तिगत आकलन के बिना ही दूसरों की देखादेखी अपने बच्चों को महंगे निजी स्कूलों में दाखिल करवा देता है। वास्तव में वह भी इतना कसूरवार नहीं है, जितना कि वह दिखता है। समाज में निजी स्कूलों को ही सफलता का पर्याय और नौकरी की गारंटी मान लिया है, जबकि यह पूरी हकीकत नहीं है। इस पूरे परिप्रेक्ष्य में एक यथार्थ यह भी है कि आज भी कई निजी स्कूलों में पढ़े-लिखे युवा भी बेरोजगार बैठे हैं, जबकि सरकारी स्कूलों की भी कई प्रतिभाओं ने सफलता के मुकाम हासिल किए। अगर हम केवल एक ही पक्ष को ध्यान में रखकर आकलन करते रहे, तो शायद ही कभी सही निष्कर्ष तक पहुंच पाएं।  ऐसे में सरकारी स्कूलों की विफलता के प्रति जो मिथक या भ्रम पैदा हो गए हैं, वे संभवतया टूटने लगेंगे। इसके बाद शायद सरकारी पाठशाला को भी वही सम्मान मिल पाएगा, जो अतीतमें मिलता आया है।  हिमाचल प्रदेश ने जहां मात्रात्मक शिक्षा का बहुत विकास कर लिया है, अब यहां से प्रदेश में गुणात्मक शिक्षा में सुधार की ओर बढ़ना होगा। सरकारी शिक्षा को बचाना इसलिए भी जरूरी हो गया है, क्योंकि आज भी बढ़ती महंगाई के इस दौर में सरकारी पाठशाला ही आम आदमी का सहारा है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि सरकारी स्कूलों में फिर से शिक्षा का ऐसा सकारात्मक माहौल बनाया जाए, जहां से आम आदमी सरकारी शिक्षा पर विश्वास कर सके। इसके लिए जरूरी है कि शिक्षा विभाग अपने प्रचार तंत्र को मजबूत बनाए। विभाग चाहे तो इसकी शुरुआत में आदेश जारी कर सकता है कि हर सरकारी विद्यालय एक बोर्ड पर वहां से पढ़कर निकलने वाले सफल लोगों या बोर्ड परीक्षा के टॉपरों की एक सूची लगाए। आगे की राह खुद-ब-खुद बनती चली जाएगी।


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