भोरंज तेरे रंग

By: Apr 14th, 2017 12:02 am

भोरंज की जीत-हार से हिमाचल विधानसभा के समीकरण तो यथावत हैं, लेकिन भाजपा का तेज अवश्य ही मुखर होगा। शायद भाजपा की जीत का श्रेय न बंटे, लेकिन कांग्रेस के भीतर झांकने का सबब बनकर पड़ताल होनी चाहिए। खास तौर पर हार का ठीकरा फोड़ा जाएगा, तो एक साथ कई गर्दनें चाहिएं। अगर भोरंज उपचुनाव का मूल्यांकन मिशन रिपीट के नजरिए से किया जाए, तो सिफर होते मंतव्य के साथ सरकार की छवि भी खराब हो रही है। उपचुनाव सरकार की तैयारी का हिसाब है, लेकिन कांग्रेस पार्टी के संगठन की मलालत भी करता है। खास तौर पर जिस क्षेत्र में चुनावी बिगुल बजा, वहां से पार्टी अध्यक्ष की अपनी छवि का कसूर भी तो दिखाई देगा। कसूर तो भाजपा छोड़कर  कांग्रेस में समाहित राजिंद्र राणा के मंचन पर भी कम नहीं निकलेगा। कांग्रेस इस उपचुनाव में खुद को ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर तक देखकर भी अपना बचाव नहीं कर पाएगी। दूसरी ओर भाजपा की जीत ने पार्टी के भीतर परिवारवाद को कहीं न कहीं सशक्त ही किया है। जीत में स्व. ईश्वर दास धीमान का तिलिस्म और पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल का वर्चस्व दिखाई देता है। यह दीगर है कि हिमाचल में भाजपा की जीत केवल स्थानीय समीकरणों में ही पढ़ी जाएगी और इसे मोदी लहर के आलोक में नहीं देखना चाहिए। इस तरह जीत-हार के बीच स्थानीय संवेदना, समीकरण और समीक्षा करती सियासत के दस्तूर को आगामी चुनावों तक समझने की आवश्यकता रहेगी। भोरंज चुनाव ने भले ही पुनः भाजपा की जीत सुनिश्चित कर दी, लेकिन कांग्रेस की मिट्टी नहीं उखाड़ी है। जीत का हर पहलू स्थानीय रहा, बिना यह जांचे कि देश में मोदी के समर्थन में क्या पक रहा है। इस संकेत को अगर भाजपा गौर से देखे, तो मालूम होगा कि हिमाचल का मतदाता अपने विवेक को अप्रभावित रखकर फैसला ले रहा है। कमोबेश भोरंज उपचुनाव में सरकार विरोधी लहरें इतनी नहीं उठीं कि कांग्रेसी उम्मीदवार ही नगण्य हो जाता। हार के बावजूद कांग्रेस ने अगर सबसे अधिक कुछ खोया है, तो यह सवाल पार्टी के वजूद से है। कमोबेश हर जिला में कांग्रेस का कोई न कोई चेहरा है, लेकिन हमीरपुर में पार्टी अपने बूते आज तक नहीं चली। ऐसे में कांग्रेसी उम्मीदवार के निजी खाते में मतों का प्रतिशत काफी हद तक समझा जा सकता है। विवादों की गठरी उठाए कांग्रेस संगठन की ताकत जरूर इस बार भी खोखली साबित हुई, हालांकि बजट सत्र को समयपूर्व स्थगित करके सरकार के मंत्री भी भोरंज की सरहद में घुसे थे। भोरंज उपचुनाव के परिणाम से भी बड़े प्रश्नों से हिमाचल सरकार घिरी हुई है, अतः यह समझना होगा कि किसके अक्स में ज्यादा नुकसान हुआ। भोरंज उपचुनाव वैसे कोई रहस्य की गुत्थी था भी नहीं और इसलिए इसे पूर्व मंत्री स्व. ईश्वर दास धीमान के प्रति मतदाता की आदरांजलि के रूप में समझा जा सकता है, लेकिन नेतृत्व की साख पर हम पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के साथ जोड़कर इस जीत का जश्न समझ सकते हैं। भोरंज उपचुनाव की कसौटियां व करवटें जिस तरह नेता प्रतिपक्ष के इर्द-गिर्द आकर एकत्रित हुई थीं, उससे यह स्पष्ट था कि कहीं भाजपा के रुतबे में प्रेम कुमार धूमल की परीक्षा भी हो रही है। यह दीगर है कि अभी भी भाजपा के भीतर परिवारवाद से निकले उम्मीदवारों को ही वरीयता मिल रही है और इसके खिलाफ आक्रोश के छींटे बिखरे हैं। भाजपा ने अपने जो मत खोए, उन्हें पार्टी के भीतरी आक्रोश ने ही तहस-नहस किया। अतः आगामी चुनाव तक उम्मीदवारों के चयन में कुछ सैद्धांतिक पवित्रता की जरूरत रहेगी। हिमाचल के संदर्भ में भाजपा को केवल मोदी की लहर का सहारा नहीं चाहिए, बल्कि स्थानीय नेतृत्व व महत्त्वाकांक्षा को भी समझना पड़ेगा। भोरंज उपचुनाव की हार कांग्रेस में किसके  पल्ले पड़ती है, यह पार्टी की खींचतान में नश्तर की तरह लटकी रहेगी।


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