मोदी युग में हिमाचल

By: Apr 27th, 2017 12:05 am

हिमाचल में आक्रामक राजनीति के उद्घोष उन दीवारों से भी आगे जहां प्रादेशिक कान के पर्दे लगातार सुन रहे हैं। यह बाजी एक अलग तरह के टेस्ट फायर की तैयारी में मशगूल है, क्योंकि पंजाब के बगल में बारूद है। हिमाचली बुनियाद पर अपने बुनियादी सवालों के साथ, भाजपा पूरे नैन-नक्श बदलने के कौतूहल में शरीक और इसीलिए कभी प्लस फिफ्टी तो कभी प्लस सिक्सटी के फेर में दिखाई देती है। जाहिर है जितना बड़ा लक्ष्य, उतनी बड़ी आक्रामकता और इससे भी वजनदार मुद्दों की तलाश होगी। रिज पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली तो हिमाचली हवाओं और दिशाओं के बीच एक बड़ी रेखा खींचने सरीखी होगी, लेकिन मंजर को मजबूत करने का बड़ा सबब बनकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पालमपुर आ रहे हैं। राजनीति का युग बदलने का जो मैदान पालमपुर में चुना गया है, उसकी पृष्ठभूमि पार्टी का जन्मदिन मनाने जैसी है, क्योंकि कभी राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने यहीं से कदम बढ़ाने सीखे थे। राजनीति के अपने दर्शन में भाजपा ने जीतना तो सीखा, साथ ही सत्ता तक खुद को पहुंचाने का संबल भी एकत्रित किया। अपनी तरोताजा मुद्रा में पार्टी ने हर प्रदेश को अपने भरोसे के झरोखे से देखना शुरू किया है, तो इस क्रम में हिमाचल का जिक्र अपने ही कारण होना चाहिए। राष्ट्रीय जज्बात से ओतप्रोत तथा कुर्बानियों के चिर स्थायी इतिहास का साक्षी यह प्रदेश है। शाह के दौरे से पहले भाजपा शासित दो उपद्रव ग्रस्त राज्यों का जिक्र स्वाभाविक है और छत्तीसगढ़ हमले में हिमाचली शहादत का भी वर्णन करना होगा। कमोबेश हर हमले में देश की हिफाजत को सींचते हिमाचली रक्त का रंग कभी फीका नहीं होता। देश जहां शहादत से मजबूत होता है, वहां हिमाचल का योगदान सभी राज्यों से श्रेष्ठ है, लेकिन राजनीतिक वरीयता में देश ऐसे नहीं सोचता। कश्मीर या छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकारों को भी तो मालूम हो कि किस फौलादी जिगर से हिमाचली खून की नदियां फूटती हैं, लेकिन राष्ट्रीय संसाधनों में तो पर्वत से बिछड़ते पानी का भी कोई मोल नहीं। सियासत के दुर्ग, जिस पानी के लिए कई राज्य और केंद्र सरकारों को विचलित करते हैं, उसके बहने का अर्थ हिमाचल से भी तो पूछा जाए। हिमाचल ने आज तक जो कुछ सत्ता को दिया, पार्टियों ने छीन लिया। अटल सरकार ने औद्योगिक पैकेज से इनसाफ की डगर पर चलना सिखाया, लेकिन यूपीए ने सियासत के बौनेपन में यह हक भी छीन लिया। ऐसे में घोषणाएं सुनने का आदी शिमला का रिज, फिर टुकर-टुकर प्रधानमंत्री के आगमन को देख रहा है। एक आर्थिक पैकेज जो पहाड़ के बंद दरवाजे खोल दे। राष्ट्रीय अधोसंरचना के दायरे में हिमाचल को भी ले ले। विकास की परिभाषा तो तभी बनेगी, अगर एक अलग स्वतंत्र मंत्रालय पर्वतीय राज्यों को समझे। तकनीक, अनुसंधान और नवाचार की खोज में हिमाचल का मुस्तकबिल निर्धारित करने के लिए केंद्र में अलग विभाग की जरूरत है और यह इसलिए भी क्योंकि किसी भी परियोजना के आड़े फिजीबिलिटी रिपोर्ट आ जाती है। लेह रेल जैसी राष्ट्रीय महत्त्व की परियोजना को अगर हरी झंडी नहीं मिल रही, तो इसके विस्तार का सूना पक्ष ऊना-तलवाड़ा की पटरियों पर समझा जा सकता है। मसला विकास के पर्वतीय विमर्श का है और जिसे जब-जब समझा गया, निष्कर्ष देश के हित से जुड़े। रोहतांग सुरंग के जरिए अटल बिहारी वाजपेयी ने जिस प्रकाश को देखा, वह सपना अब पूरा होने वाला है। इसी तरह के ताल्लुक से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हिमाचल देख रहा है। पूर्वोत्तर, जम्मू-कश्मीर जैसे पर्वतीय राज्यों के मुकाबले हिमाचल में सुशासन, देश प्रेम व कुर्बानियों की मिसाल जब मशाल बनकर चमकती है, तो मानवीय अंधेरों से कहीं आगे यह प्रदेश अपने नागरिक समाज की संगठित भूमिका में दर्ज होता है और यहीं से राज्य के अधिकारों पर रही उदासीनता का जिक्र स्वाभाविक है। एक बार फिर रिज के मंच के सामने पर्वतीय वजूद के दीदार में प्रधानमंत्री का संबोधन और हवाओं के स्पंदन में हिमाचली अधिकारों की शिकायत। देश को प्राकृतिक संसाधनों के अलावा अपने रक्त से सुसज्जित करने वाले प्रदेश को इतना हक चाहिए कि जब राजस्थान के रेगिस्तान को हरियाली देने को हमारी घाटियां डूबें तो विस्थापितों का दर्द समझा जाए। पंजाब पुनर्गठन की हिस्सेदारी में पानी का कर्ज उतारा जाए। जल संसाधन को प्रदेश की मिलकीयत के हिसाब से दर्जा और विद्युत उत्पादन में जनरेशन टैक्स लगाने की अनुमति मिले। वन संरक्षण अधिनियम के तहत रुकी प्रदेश की आर्थिकी का हर्जाना और जंगल में हर्बल, चाय व कॉफी की खेती का हिस्सा तय हो तो परिवेश की रक्षा के मायने बदलेंगे, वरना चौसठ फीसदी जमीन वनों को देकर हिमाचल कब तक फकीर बना रहेगा।


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