मौत के आलिंगन में मौसम

By: Apr 10th, 2017 12:05 am

मौसम का मरघट सरीखा व्यवहार अब प्रगति को नीचा दिखा रहा है और जहां खंडहर बनते हैं हमारे अपने ही मकसद। अप्रैल महीने की छटा में छटांक हो गया किसान और इंद्र देवता ने उड़ा दी खेती की शान। पता नहीं मौत के आलिंगन में क्यों फंस गया मौसम और क्यों हमारे अस्तित्व के खिलाफ इसने भी युद्ध चुन लिया। हैरत यह कि हिमाचली मौसम पर फिदा होने आते हैं राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पर्यटक और हिमाचली हवाओं के संसर्ग में देवभूमि को अंगीकार करते हैं। फिर भी कुछ हादसे मौसम की बाहों में लिपट कर जश्न को जख्म बना देते हैं। मौसम के सुखद वृत्तांत ने आखिर क्यों मातम की चादर ओढ़ कर फिर निगल लिए कुछ लोग, जो मासूम थे। फिर युवा प्रकृति से दोस्ती निभाने जब मलाणा और सिरमौर की पहाडि़यों तक पहुंचे, तो देवभूमि का स्पर्श पाने की चाहत किसने मसल दी। हिमाचल के दामन में फिर युवाओं की मौत का एहसास और कातिल बनने का गुनाह पुनः मौसम ने क्यों कबूल कर लिया। कब तक पर्वत बुलाएंगे और मौसम सारे उत्साह को रौंद कर चला जाएगा। हमें पर्यटकों को सुरक्षित और सुशोभित हिमाचल पेश करना है और यह चुनौती बढ़ रही है। इससे पहले भी शिकारी देवी के चुंबकीय आकर्षण में कब मौत साथ हो ली, इसका पता तब चला जब एनआईटी के दो छात्र घर जिंदा नहीं लौटे। पर्यटन की काबिलीयत में ऐसी मनहूस खबरें हिमाचली मंजर की तलाशी लेती हैं। मौसम का एहसास कब्रगाह न बने, इस पर गहन चिंतन की जरूरत है। कुछ एहतियाती कदम कम से कम पर्यटक की यात्रा को सुरक्षित कर सकते हैं, लेकिन दूसरी ओर कफन ओढ़कर बैठी फसल को कैसे मुक्ति दिलाएं। क्या हिमाचली किसान-बागबान भी उत्तर प्रदेश की खैरात की तरह, अपनी पैदावार का मोल-तोल कर पाएगा। प्रचंड मौसम ने जो तांडव नृत्य किया, उसने इस वर्ग को अपाहिज और फरियादी बना दिया। अतः अब सरकारी मुआवजे की दरकार बढ़ जाती, लेकिन समझना तो उस रौद्र व्यवहार को होगा जो हमेशा खेत-बागान को हमेशा परेशान करने लगा है। खड़ी फसल पर प्रहार और फल आने से पहले फूलों पर मौसमी अत्याचार को समझना होगा। कुछ तो है कि प्रकृति रूठ कर सताने और पैदावार में खलल डालने लगी है। परिवेश के इस गुस्से को समझने से पहले हद से बाहर हो गई इनसानी फितरत को रोकना पड़ेगा। प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ने की सजा अब सामने है। विज्ञान जिसे अपनी दलीलों और अनुसंधानों के  जिक्र से समझाता रहा है, उससे भी कहीं आगे निकलने की होड़ में पहाड़ ने खुद पर प्रगति की कीलें गाड़ लीं और अब जबकि आसमान का सब्र टूटता है, तो बादल फटते हैं और बेमौसम बरसात से कहर की भरपाई नहीं होती। आश्चर्य तो यह कि मौसम की विकरालता को हम नजरअंदाज  करके बढ़ रहे हैं, जबकि कहीं किसी कोने में खड़ी प्रकृति हमें धिक्कारती है। पहाड़ ने हमेशा पानी को संजोया और उसे सहेज कर वापस मैदान को लौटा दिया। प्रकृति का असली शृंगार भी पहाड़ है, लेकिन अब इसका संतुलन टूट कर बिखर रहा है और इसलिए मौसम बेकाबू व बेदर्द है। हिमाचल जैसे प्रदेश को जलवायु परिवर्तन की विकरालता को समझते हुए खुद पर कुछ अंकुश लगाने की जरूरत है। पर्वतीय विकास की जिस राह पर हम चल रहे हैं, वहां केंद्र के एक अलग विकास मंत्रालय की आवश्यकता शुरू से ही रही है। पर्वतीय विकास मंत्रालय की स्थापना से कृषि विज्ञान अनुसंधान के अलावा विकास में तकनीकी विकल्प खोजने की एक अलग परिपाटी बन सकती है। पर्वतीय राज्यों पर मौसम का कुप्रभाव अभी तक राष्ट्रीय पैमाने में नहीं देखा गया। दूसरी ओर हिमाचल में ट्रैकिंग के प्रति आकर्षित होते युवाओं को सुरक्षा व दिशा निर्देशन की आवश्यकता है। मौसम के बनते-बिगड़ते मिजाज के अनुरूप ट्रैकिंग, पैराग्लाइडिंग तथा रिवर राफ्टिंग जैसे रोमांच को नियंत्रित करने की जरूरत महसूस की जा रही है।


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