सुख : दुख की प्रतीति

By: Apr 8th, 2017 12:05 am

ओशो

मनुष्य के अनुभव में, प्रतीति में सुख और दुख दो अनुभूतियां हैं, गहरी से गहरी। अस्तित्व का जो अनुभव है, अगर हम नाम को छोड़ दें, तो या तो सुख की भांति होता है या दुख की भांति होता है और सुख और दुख भी दो चीजें नहीं हैं। अगर हम नाम बिलकुल छोड़ दें, तो सुख-दुख का हिस्सा मालूम होगा और दुख-सुख का हिस्सा मालूम होगा, लेकिन हम हर चीज को नाम देकर चलते हैं। मेरे भीतर सुख की प्रतीति हो रही हो अगर मैं यह न कहूं कि यह सुख है, तो हर सुख की प्रतीति की अपनी पीड़ा होती है। यह थोड़ा कठिन होगा समझना।  हर सुख की प्रतीति की अपनी पीड़ा होती है। प्रेम की भी अपनी पीड़ा है। सुख का भी अपना दंश है, सुख की भी अपनी चुभन है, सुख का भी अपना कांटा है अगर नाम न दें। अगर नाम दे दें, तो हम सुख को अलग कर लेते हैं, दुख को अलग कर देते हैं। फिर सुख में जो दुख होता है, उसे भुला देते हैं। यह मान कर कि वह सुख का हिस्सा नहीं है और दुख में जो सुख होता है, उसे भुला देते हैं। मान कर कि वह दुख का हिस्सा नहीं है। क्योंकि हमारे शब्द में, दुख में सुख कहीं भी नहीं समाता और हमारे शब्द सुख में दुख कहीं भी नहीं समाता।  आज ही मैं किसी से बात करता था कि यदि हम अनुभव में उतरें तो प्रेम और घृणा में अंतर करना बहुत मुश्किल है। शब्द में तो साफ  अंतर है। इससे बड़ा अंतर और क्या होगा? कहां प्रेम, कहां घृणा और जो लोग प्रेम की परिभाषाएं करेंगे, वे कहेंगे, प्रेम वहीं है जहां घृणा नहीं है और घृणा वहीं है जहां प्रेम नहीं है, लेकिन जीवंत अनुभव में प्रवेश करें, तो घृणा प्रेम में बदल जाती है, प्रेम घृणा में बदल जाता है। असल में ऐसा कोई भी प्रेम नहीं है, जिसे हमने जाना है, जिसमें घृणा का हिस्सा मौजूद न रहता हो। इसलिए जिससे भी हम प्रेम करते हैं, उससे हम घृणा भी करते हैं, लेकिन शब्द में कठिनाई है। शब्द में, प्रेम में सिर्फ  प्रेम आता है, घृणा छूट जाती है। अगर अनुभव में उतरें, भीतर झांक कर देखें तो जिससे हम प्रेम करते हैं, उससे हम घृणा भी करते हैं।  अनुभव में, शब्द में नहीं और जिससे हम घृणा करते हैं, उससे हम घृणा इसीलिए कर पाते हैं कि हम उससे प्रेम करते हैं। अन्यथा घृणा करना संभव न होगा। शत्रु से भी एक तरह की मित्रता होती है, शत्रु से भी एक तरह का लगाव होता है। मित्र से भी एक तरह का अलगाव होता है और एक तरह की शत्रुता होती है।  सुख-दुःख का संबंध मनुष्य की भावात्मक स्थिति से मुख्य है। जैसा मनुष्य की भावना का स्तर होगा उसी के रूप में सुख-दुःख की अनुभूति होगी। जिनमें उदार, दिव्य सद्भावनाओं का समुद्र उमड़ता रहता है, वे हर समय प्रसन्न, सुखी, आनंदित रहते हैं। स्वयं तथा संसार और इसके पदार्थों को प्रभु का मंगलमय उपवन समझने वाले महात्माओं को पद-पद पर सुख के सिवा कुछ और रहता ही नहीं। कांटों में भी वे फूलों की तरह मुस्कराते हुए सुखी रहते हैं। कठिनाइयों में भी उनका मुंह कभी नहीं कुंभलाता।


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