अष्‍टावक्र महागीता

By: May 6th, 2017 12:12 am

यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः।

तथैवास्मिन् शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः।।

Aasthaदर्पण में किसी भी वस्तु या मुख आदि का प्रतिबिंब स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इस तरह वस्तु या मुख दर्पण में भी प्रतिबिंबित है और दर्पण से बाहर भी है। वह शरीर में भी है और शरीर से बाहर भी है। ठीक इसी तरह परमात्मा की स्थिति है। वह शरीर में भी है और शरीर से बाहर भी है। इस सूत्र में अष्टावक्र आत्मा व परमात्मा के स्वरूप को दर्पण का उदाहरण देकर पृर्णरूपेण स्पष्ट कर देते हैं।  वे कहते हैं कि जिस तरह दर्पण में अपना ही प्रतिबिंब दिखलाई देता है, लेकिन दर्पण के प्रतिबिंब व वास्तविक शरीर में कोई अंतर नहीं होता तथा प्रतिबिंब के हट जाने पर दर्पण में भी कोई विकार नहीं आता। वैसे ही आत्मा व परमात्मा में भी कोई भेद नहीं है। जो आत्मा है वही परमात्मा है और जो परमात्मा है, वही आत्मा है। परमात्मा संसार के कण-कण में व्याप्त है। वही परमात्मा आत्मा रूप से जीवों के घट-घट में व्याप्त है। उस परमात्मा को खोजने की आवश्यकता नहीं है और न ही जंगलों में भटकने की आवश्यकता है।  परमात्मा आत्मा रूप से इसी शरीर में विद्यमान है। आत्मा को जानना ही परमात्मा को जानना है, लेकिन उसे चर्म-चक्षुओं से नहीं जाना जा सकता। इसके लिए ज्ञानचक्षु की आवश्यकता होती है। ज्ञान होने पर आत्मा या परमात्मा से सहज ही साक्षात्कार हो जाता है। वह निर्विकार, प्रकाशरूप, ज्ञानमय है। अष्टावक्र कहते हैं जनक दर्पण में प्रतिबिंबित की भांति ही परमात्मा आत्मा रूप से तुझमें भी स्थित है। उसे पाने के लिए तुझे कुछ भी नहीं करता है, केवल जानना है।  अतः तू उस आत्मा को जान। उसको जानने से ही मुक्ति संबंधी तेरे प्रश्न का समाधान हो जाएगा और तू मुक्त व सुखी हो जाएगा।

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