कई कुचक्रों को तोड़ते मेजर गोगोई

By: May 27th, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्रीडा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

नेशनल कान्फ्रेंस के लोग सड़कों पर चिल्ला-चिल्ला कर गोगोई के लिए फांसी की मांग करने लगे। लेकिन इस पूरी रणनीति में एक पलीता लग गया। इसकी शंका शायद किसी को नहीं थी। न पत्थर ब्रिगेड को, न वीडियोग्राफी ब्रिगेड को और न ही मानवाधिकार ब्रिगेड को।  यह पलीता लगाया था पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंदर सिंह ने। उन्होंने अखबारों में बाकायदा एक लंबा लेख लिख कर मेजर गोगोई के काम की सराहना ही नहीं की बल्कि यह भी कहा कि यदि उसके स्थान पर मैं होता तो मैं भी यही करता। कैप्टन के लेख से मानवाधिकारवादियों की ब्रिगेड में खलबली मच गई। इस इलाके से भी बमबारी हो सकती है, इसके बारे में तो रणनीति बनाते समय सोचा ही नहीं था…

कश्मीर घाटी की घटना है। उस दिन लोकसभा की श्रीनगर सीट के लिए मतदान हो रहा था । मतदान केंद्र की सुरक्षा के लिए अर्द्धसैनिक बल के कुछ जवान तैनात थे। अचानक भीड़ ने मतदान केंद्र को घेर लिया। पत्थर फेंकने वालों की ब्रिगेड पहले ही तैनात थी। नेशनल  कान्फ्रेंस की ओर से इस सीट के लिए उमर अब्दुल्ला के पिता और मरहूम शेख अब्दुल्ला के बेटे फारुक अब्दुल्ला अपनी किस्मत आजमा रहे थे। उनके मुकाबले में पीडीपी के नजीर अहमद खान खड़े थे। 2014 के चुनाव में वह यह सीट पीडीपी के तारिक अहमद कारा के हाथों हार गए थे। इस बार वह कोई चांस नहीं लेना चाहते थे। इसलिए मतदान से काफी अरसा पहले ही उन्होंने जगह- जगह सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने वालों को आजादी के योद्धा कहना शुरू कर दिया था। उन्होंने नेशनल कान्फ्रेंस के कारकूनों को भी निर्देश दे दिया था कि वे हुर्रियत कान्फ्रेंस के साथ कंधा से कंधा मिला कर चलें। पत्थर फेंकने वालों की पलटन उनकी नजर में हीरो हो गई थी। नीति के अनुसार सब ठीक ही चल रहा था। लेकिन भीड़ ने जब मतदान केंद्र को घेर लिया और सुरक्षा कर्मियों की जान को खतरे में से कैसे निकाला जाए, सेना की सहायता मांगी गई। मेजर नितिन गोगोई के नेतृत्व में सैनिकों का एक जत्था मतदान केंद्र पर पहुंचा। स्थिति अत्यंत गंभीर थी। मतदान केंद्र को मुक्त करवा कर वहां फंसे लोगों की जान बचाना जरूरी था। गोगोई के पास उसका एक ही विकल्प था। वह गोली चलाने का आदेश दे सकते थे। सेना के पास वैसे भी पुलिस की तरह लाठी नहीं होती। लेकिन उससे लगभग बारह लोगों की जान जा सकती है । उससे ज्यादा लोग भी मारे जा सकते थे। यदि गोगोई गोली नहीं चलाते तो वे लोग जिन्हें अलगाववादियों ने घेर रखा था, उनमें से अधिकांश मारे जा सकते थे।

ऐसी स्थिति में यह संभावित हत्याकांड रोकने का क्या तरीका हो सकता था। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उस समय वह तरीका तलाश करने के लिए वहां किसी लंबी मीटिंग या सेमिनार आयोजित करने  का विकल्प उपलब्ध नहीं था ताकि एमनेस्टी इंटरनेशनल और देश भर में मानवाधिकारों का अध्ययन कर रहे गंभीर विद्वानों के समाचार पत्रों के स्तंभ लेखकों, नेशनल कान्फ्रेंस के प्रतिनिधियों को बुला कर कार्रवाई के लिए ठोस विकल्प तलाशे जा सकते। जो कुछ करना था मेजर गोगोई को ही करना था और वह भी तुरंत करना था। वैसे भी नेशनल कान्फ्रेंस के मुखिया अपना स्टैंड पहले ही स्पष्ट कर चुके थे। वे एक साथ ही पत्थरबाज और मतदान करने वाले मतदाता की भूमिका में आ गए थे। वैसे तो कान्फ्रेंस शेख अब्दुल्ला के वक्त से ही यह दोहरी भूमिका जी रहा है। लेकिन असम के रहने वाले नितिन गोगोई को जम्मू- कश्मीर की इस राजनीति का न पता था और न ही उसकी इसमें रुचि थी । उसकी चिंता तो वहां होने वाले नरसंहार को किसी भी तरह टालने की थी। परिस्थितियां सामान्य नहीं थीं। आपातकाल था। गोगोई को आपात धर्म निभाना था। आपाद धर्म निभाने की जरूरत सभी लोगों को नहीं होती। उसकी जरूरत उसी को होती है जो आपदा में फंसा होता है। इस बार यह जरूरत गोगोई को थी। उसने तुरंत पत्थरबाजों को उकसा रहे एक लड़के को पकड़ कर जीप के बोनट पर बांध दिया। पत्थर चलाने वालों ने पत्थर चलाने बंद कर दिए। भीड़ में से किसी आतंकवादी द्वारा गोली चलाए जाने का खतरा भी टल गया था। क्योंकि इस गोलीबारी में जीप पर बंधे  फारुख अहमद की मौत भी हो सकती थी, लेकिन वह तो पत्थर फेंक पलटन का अपना आदमी था। इस लिए अब न गोली चलेगी न पत्थर चलेगा। मेजर ने मतदान केंद्र से बिना एक भी गोली चलाए सभी को सुरक्षित बाहर निकाल लिया। हुर्रियत कान्फ्रेंस, अलगाववादियों और आतंकवादियों की रणनीति असफल हो गई। नेशनल कान्फ्रेंस की  फेल हुई या नहीं यह तो  फारुख और उमर अब्दुल्ला ही बेहतर जानते होंगे। लेकिन आखिरी वे भी मेजर गोगोई को इतनी आसानी से कैसे सफल होने दे सकते थे।

तुरंत अलगाववादियों का फोटो व वीडियो को हथियार के तौर पर प्रयोग करने वाला सैल सक्रिय हो गया। आधुनिक तकनीक की विशेषता है कि इस काम के लिए पत्थर फेंको पलटन की तरह आगे आना नहीं पड़ता। बोनट पर बंधे फारुख अहमद  की तस्वीर वायरल कर दी गई। पहली पलटन पत्थरबाजों की मैदान में उतरी थी। दूसरी पलटन वीडियोग्राफी वालों की उतरी थी। उसने अपना काम कर दिखाया था। अब तुरंत तीसरी पलटन मानवाधिकारवादियों की मैदान में उतरी। यह बुद्धिजीवियों की पलटन थी। छत्तीसगढ़ के जंगलों में माओवादियों से लेकर जम्मू- कश्मीर में काम कर रहे आतंकवादियों तक सभी के कुकृत्यों की सफाई देना और उसके औचित्य को सही ठहराने की भारी भरकम जिम्मेदारी इसी पलटन के जिम्मे है। पत्थरबाजों की पलटन को अपना काम करते हुए कुछ सीमा तक खतरा भी उठाना पड़ता है। वे सुरक्षा बलों की गोली का शिकार हो सकते हैं, लेकिन मानवाधिकार ब्रिगेड को ऐसा कोई खतरा नहीं होता। क्योंकि वह अपना काम सुरक्षित स्थान और सुविधासंपन्न वातावरण में ही करती है। इस ब्रिगेड ने अपनी रणनीति से मेजर गोगोई को घेर लिया। उस पर पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज कर दी। मानवाधिकारवादियों के समूह गोगोई के लिए सजा की मांग करने लगे। उसने नरसंहार को होने से बचा लिया यह बात गौण हो गई। बोनट पर बंधे अहमद को कितनी मानसिक वेदना हुई, इसका लेखा-जोखा किया जाने लगा। उसके एवज में गोगोई को दंडित करने की मांगें उठाई जाने लगीं। पत्थरबाज ब्रिगेड की असफलता को मानवाधिकार ब्रिगेड सफलता में बदलना चाहती थी। उधर, नेशनल कान्फ्रेंस ने अपनी भूमिका  संभाली। सफल मैनेजमेंट की यही ख़ूबी होती है। सभी अंग प्रत्यंग अपना- अपना काम इस प्रकार संभालते हैं कि एक दूसरे की सहायता प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से होती रहे। नेशनल कान्फ्रेंस के लोग सड़कों पर चिल्ला-चिल्ला कर गोगोई के लिए फांसी की मांग करने लगे।

लेकिन इस पूरी रणनीति में एक पलीता लग गया। इसकी शंका शायद किसी को नहीं थी। न पत्थर ब्रिगेड को, न वीडियोग्राफी ब्रिगेड को और न ही मानवाधिकार ब्रिगेड को।  यह पलीता लगाया था पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरंद्र सिंह ने। उन्होंने अखबारों में बाकायदा एक लंबा लेख लिख कर मेजर गोगोई के काम की सराहना ही नहीं की बल्कि यह भी कहा कि यदि उसके स्थान पर मैं होता तो मैं भी यही करता। कैप्टन के लेख से मानवाधिकारवादियों की ब्रिगेड में खलबली मच गई। इस इलाके से भी बमबारी हो सकती है, इसके बारे में तो रणनीति बनाते समय सोचा ही नहीं था। इस नुकसान को पूरा करने  के लिए दूसरे कैंप के लिए भी किसी बड़े रुतबे के आदमी को मैदान में उतारना जरूरी हो गया। तब कैप्टन को जवाब देने के लिए उमर अब्दुल्ला को मैदान में उतारा गया। पत्थर का जवाब पत्थर। गोली का जवाब गोली। आलेख का जबाब आलेख। कैप्टन के आलेख के जवाब में उमर अब्दुल्ला का आलेख अखबारों में आया। उन्होंने अखबार में मेजर गोगोई पर गोलाबारी की और फारुख अहमद धर पर हुए अत्याचार के लिए गोगोई को जिम्मेदार ठहराया। उसके लिए गोगोई को क्या सजा दी जाए। यह कहने की जरूरत उमर अब्दुल्ला को नहीं थी क्योंकि इसकी घोषणा अखबार में नहीं बल्कि कश्मीर घाटी की सड़कों पर उनकी पार्टी के लोगों ने प्रदर्शन  के माध्यम से की थी। गोगोई को फांसी मिलनी चाहिए। गोगोई का कसूर केवल इतना है कि उसने फारुख अहमद धर जैसे पत्थरबाजों पर न पैलेट गन चलाई, न असली गन। उसने अपनी तरकीब से उसकी भी जान बचा ली और मतदान केंद्र में फंसे दूसरे लोगों की भी। लेकिन नेशनल कान्फ्रेंस को घाटी में अपनी राजनीति चलाने के लिए लाशों की जरूरत थी। उसके दुर्भाग्य से गोगोई ने उसकी यह मांग पूरी नहीं की। इस कसूर की सजा फांसी तो होनी ही चाहिए। याद कीजिए शेख अब्दुल्ला का 1952 में जम्मू के रणवीर सिंह पुरा में दिया गया भाषण। लगता है नेशनल कान्फ्रेंस वापस रणवीर सिंह पुरा के युग में लौट आती है ।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com

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