कठघरे में माननीयों के वेतन-भत्ते

By: May 10th, 2017 12:05 am

एलएस हरदेनिया

लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता और वरिष्ठ पत्रकार हैं

बिना संसद और विधानमंडल की स्वीकृति के बिना सरकार एक पैसा भी खर्च नहीं कर सकती, परंतु इस अधिकार का उपयोग स्वयं के लाभ के लिए किया जाना एक दृष्टि से अनैतिक है। जनप्रतिनिधियों को अपने चाल-चलन से आदर्श स्थापित करना चाहिए। आज ऐसा लगता है कि जनप्रतिनिधि अपने हित में सरकारी कोष का दुरुपयोग कर रहे हैं। इससे जनप्रतिनिधियों और जनता के बीच में अविश्वास की खाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जो स्वस्थ लोकतंत्रात्मक समाज को कायम रखने में बाधक सिद्ध हो सकती है…

सांसदों को मिलने वाली पेंशन का मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचारार्थ पेश हो गया है। एक जनहित याचिका को स्वीकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस संबंध में केंद्रीय सरकार एवं संसद के दोनों सदनों के सचिवालयों की राय जानने के लिए पत्र लिखे हैं। सांसदों के अलावा विधानसभा और विधान परिषद के सदस्यों को भी पेंशन मिलती है। हमारे देश में जनप्रतिनिधियों को दी जाने वाली पेंशन की व्यवस्था अपने आप में अजीबो गरीब है। न सिर्फ पेंशन, वरन जनप्रतिनिधियों के लिए वेतन-भत्ते निर्धारित करने की प्रक्रिया भी अनूठी है। संविधान में सांसद, विधायक, विधान परिषद सदस्य, स्पीकर, डिप्टी स्पीकर, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्रियों के वेतन-भत्ते और अन्य सुविधाओं के संबंध में निर्णय लेने का अधिकार संसद, विधानसभा और विधान परिषद को दिया गया है। दुनिया के अनेक देशों में जनप्रतिनिधियों को वेतन व अन्य सुविधाएं मिलती हैं, परंतु उन्हें निर्धारित करने का अधिकार अन्य संस्थाओं को दिया गया है। ब्रिटेन दुनिया का सबसे पुराना प्रजातंत्र है। वहां के सांसदों को वेतन व पेंशन की सुविधा है, परंतु वहां सांसदों का वेतन, पेंशन निर्धारित करने के लिए एक आयोग का गठन होता है। इस आयोग में विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को शामिल किया जाता है। इस आयोग को स्थायी रूप से यह आदेश दिया गया है कि सांसदों को इतना वेतन और सुविधाएं न दी जाएं, जिससे लोग उसे अपना करियर बनाने का प्रयास करें और न ही उन्हें इतना कम वेतन दिया जाए, जिससे उनके कर्त्तव्य निर्वहन में बाधा पहुंचे। आयोग को यह भी निर्देश है कि सांसदों के वेतन-भत्ते निर्धारित करते समय देश की आर्थिक स्थिति को भी ध्यान में रखा जाए। सभी प्रतिस्थितियों पर विचार कर आयोग अपनी सिफारिशें करता है। फिर इन सिफारिशों पर वहां का हाउस ऑफ कामंस  विचार करता है। अभी कुछ दिनों पूर्व इस बारे में एक चौंकाने वाली घटना घटी। आयोग ने वहां के सांसदों के वेतन में बढ़ोतरी की सिफारिशें कीं, परंतु प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि वह वेतन में बढ़ोतरी की सिफारिशों को मंजूर नहीं कर रहे हैं। मैंने यह निर्णय देश की आर्थिक स्थिति के मद्देनजर लिया है। प्रधानमंत्री के प्रस्ताव का ब्रिटेन के प्रतिपक्ष नेता ने तहेदिल से स्वागत किया और कहा कि देश की नाजुक आर्थिक स्थिति को देखते हुए सांसदों के वेतन में वृद्धि किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। अंततः वेतन में वृद्धि का प्रस्ताव वापस ले लिया गया। क्या ऐसा दृश्य कभी हमारी संसद और विधानसभाओं में देखने को मिलेगा? मेरे पास एक किताब है, जिसका शीर्षक ‘लेजिस्लेटर्स इन इंडिया, सैलरीज एंड अदर फैसिलिटीज’। यह लोकसभा का प्रकाशन है। इसका प्रकाशन जनवरी, 1980 में हुआ था। इसके संपादक लोकसभा के तत्कालीन महासचिव सुभाष सी. कश्यप हैं। उस समय कितना वेतन मिलता था और आज कितना वेतन मिलता है। इसकी तुलनात्मक जानकारी यहां दी जा रही है। इस किताब में वैसे तो सांसदों और देश की सभी विधानसभाओं के सदस्यों के वेतन-भत्ते की जानकारी दी गई है, परंतु मैं यहां मध्य प्रदेश से संबंधित जानकारी दे रहा हूं। वर्ष 1990 में मध्य प्रदेश के विधायकों का मासिक वेतन 1,000 रुपए था। अब वह 30,000 रुपए प्रति माह है। उस समय निर्वाचन क्षेत्र भत्ता 1,250 रुपए था, अब 35,000 रुपए है। उस समय टेलीफोन भत्ता 1,200 रुपए प्रति माह था, आज 10000 रुपए है। उस समय चिकित्सा भत्ता 1,000 रुपए था अब 10,000 रुपए है। इसके अतिरिक्त वर्तमान में स्टेशनरी भत्ता 1,000 रुपए प्रति माह मिलता है। कम्प्यूटर आपरेटर/अर्दली भत्ता 15,000 रुपए मिलता है। इस तरह कुल 1,10,000 रुपए मध्य प्रदेश के विधायक को मिलते हैं। इन सब सुविधाओं के अतिरिक्त यात्रा आदि की सुविधाएं भी प्राप्त हैं। सांसदों और विधायकों को एक ऐसा भत्ता भी मिलता है, जो शायद देश क्या, दुनिया में भी कहीं नहीं मिलता होगा। प्रत्येक सांसद और विधायक को दैनिक भत्ता मिलता है अर्थात उसे संसद और विधानसभा की दिन भर की कार्यवाही में शामिल होने के लिए दैनिक भत्ता मिलता है। न्यायाधीश प्रतिदिन अदालत में अपना कार्य संपन्न करते हैं, परंतु इसके लिए उन्हें दैनिक भत्ता नहीं मिलता। इसी तरह शासकीय कर्मचारी भी कार्यालयों में उपस्थित होकर अपना काम निपटाते हैं, परंतु इसके लिए उन्हें भी दैनिक भत्ता नहीं मिलता है। जब मासिक वेतन मिल रहा है तो दैनिक भत्ते क्यों? बात तो यहां तक सुनी जाती है कि कई सदस्य संसद और विधानसभाओं की बैठकों में उपस्थित हुए बिना भी दैनिक भत्ता ले लेते हैं। कभी-कभी वे उपस्थिति रजिस्टर में एक साथ कई दिनों की उपस्थिति दर्ज कर देते हैं। वर्ष 1990 में विधायक की 1,000 रुपए प्रति माह पेंशन निर्धारित थी। इसके अतिरिक्त एक वर्ष पूर्ण होने पर 50 रुपए प्रति वर्ष की बढ़ोतरी भी मिलती थी। पूर्व विधायकों को सरकारी बसों में निःशुल्क यात्रा की सुविधा थी, साथ ही सरकारी अस्पतालों में निःशुल्क मेडिकल सुविधा प्राप्त थी। अब पूर्व विधायकों की सुविधाओं में जबरदस्त इजाफा हो गया है। उन्हें अब 20,000 रुपए पति माह पेंशन मिलती है और चिकित्सा भत्ता 15,000 रुपए प्रतिमाह मिलता है। पेंशन में प्रतिवर्ष 10,000 रुपए की वृद्धि का प्रावधान भी किया गया है। राज्य के बाहर 4,000 किलोमीटर प्रतिवर्ष की यात्रा का प्रावधान किया गया है। सबसे चौंकाने वाला प्रावधान दोहरी पेंशन का है। यदि कोई विधायक संसद का सदस्य रह चुका है, तो उसे संसद और विधानसभा दोनों की पेंशन मिलेगी। इसी तरह यदि कोई सांसद विधानसभा का सदस्य रह चुका है तो उसे भी दोनों सदनों की पेंशन मिलेगी। पहले कुटुंब पेंशन की व्यवस्था नहीं थी। कुटंुब पेंशन की पात्रता पति/पत्नी व आश्रित को है। अधिनियम क्रमांक 15, वर्ष 2016 के अनुसार कुटंुब पेंशन की राशि 10,000 रुपए प्रति माह से बढ़ाकर 18,000 रुपए कर दी गई। सांसदों और विधायकों की पेंशन संबंधी नियमों में अनेक कमियां हैं। जैसे यदि कोई व्यक्ति एक दिन की लोकसभा या विधानसभा का सदस्य रहा हो, तो भी उसे जीवन भर पेंशन पाने की पात्रता हो जाती है। पूर्व विधायक या लोकसभा सदस्य होते ही उसे पेंशन मिलने लगती है। पूर्व सांसदों के लिए पेंशन की व्यवस्था सभी लोकतंत्रात्मक देशों में है, परंतु उन्हें पेंशन उस दिन से मिलती है जब वे उतनी आयु के हो जाएंगे जो उस देश में शासकीय सेवकों की सेवानिवृत्ति की आयु है। जैसे यदि फ्रांस में शासकीय कर्मचारी की सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष है, तो वहां के सांसदों को 60 वर्ष के होने के बाद ही पेंशन मिलेगी। हमारे संविधान ने संसद और विधानमंडल को सरकार की वित्तीय गतिविधियों पर पूरा नियंत्रण रखने का अधिकार दिया है। बिना संसद और विधानमंडल की स्वीकृति के बिना सरकार एक पैसा भी खर्च नहीं कर सकती, परंतु इस अधिकार का उपयोग स्वयं के लाभ के लिए किया जाना एक दृष्टि से अनैतिक है। जनप्रतिनिधियों को अपने चाल-चलन से आदर्श स्थापित करना चाहिए। आज ऐसा लगता है कि जनप्रतिनिधि अपने हित में सरकारी कोष का दुरुपयोग कर रहे हैं। इससे जनप्रतिनिधियों और जनता के बीच में अविश्वास की खाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जो स्वस्थ लोकतंत्रात्मक समाज को कायम रखने में बाधक सिद्ध हो सकती है।

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