कश्मीर घाटी की अशांत हवाएं

By: May 15th, 2017 12:05 am

कुलदीप नैयरकुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

कश्मीर घाटी के अलगाववादियों पर आरोप है कि वहां शिक्षा के बहिष्कार का आंदोलन उन्हीं के नेतृत्व में चल रहा है। इसके परिणामस्वरूप घाटी के बच्चे परीक्षाओं की तैयारी और इन परीक्षाओं में बैठने में खुद को अक्षम महसूस कर रहे हैं, जबकि देश के अन्य हिस्सों में यह प्रक्रिया बेहद शांतिपूर्ण ढंग से चल रही है। अलगाववादियों को यह बात समझनी होगी कि किसी भी राजनीतिक आंदोलन के मार्फत विद्यार्थियों को असहाय नहीं बनाया जा सकता और न ही ऐसा किया जाना चाहिए…

जम्मू-कश्मीर में पत्थरबाजी के लिए चाहे पाकिस्तान में रची गई कोई साजिश जिम्मेदार हो या कुछेक कट्टरपंथियों के आह्वान पर इसे अंजाम दिया जाता हो, लेकिन सच्चाई यह है कि घाटी आज भी अशांत है। प्रभावित इलाकों में बड़ी संख्या में पाठशालाओं को आग के हवाले कर दिया गया है। इससे बच्चों के मन में एक तरह का डर सा बैठ गया है कि यदि उन्होंने पाठशाला जाकर कक्षा लगाई, तो इसके लिए उन्हें सजा भुगतनी पड़ सकती है। घाटी के अलगाववादियों पर आरोप है कि वहां शिक्षा के बहिष्कार का आंदोलन उन्हीं के नेतृत्व में चल रहा है। इसके परिणामस्वरूप घाटी के बच्चे परीक्षाओं की तैयारी और इन परीक्षाओं में बैठने में खुद को अक्षम महसूस कर रहे हैं, जबकि देश के अन्य हिस्सों में यह प्रक्रिया बेहद शांतिपूर्ण ढंग से चल रही है। अलगाववादियों को यह बात समझनी होगी कि किसी भी राजनीतिक आंदोलन के मार्फत विद्यार्थियों को असहाय नहीं बनाया जा सकता और न ही ऐसा किया जाना चाहिए। इसी आंदोलन का नतीजा है कि राज्य में पर्यटकों की आमद लगातार घट रही है। इस स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सैयद अली शाह गिलानी ने श्रीनगर की गलियों में कई जुलूस निकालकर पर्यटकों को आश्वासन देने की कोशिश की कि किसी भी संभावित खतरे से उनकी सुरक्षा का हरसंभव प्रयास किया जाएगा।

आश्वासन चाहे कितने ही दिए जा रहे हों, लेकिन पर्यटकों ने सैर-सपाटे के लिए अब कश्मीर के बजाय कुछ अन्य पहाड़ी गंतव्यों को चुनना शुरू कर दिया है। पर्यटकों के नजरिए से यह बात तो समझ में आती है, लेकिन इस समूची प्रक्रिया में डल झील में शिकारे और नागिन बाग में डोंगे चलाने वालों का कामकाज बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। घाटी की अस्थिरता वाले इन हालात में जहां सामान्य कश्मीरी पीडि़त है, वहीं राज्य की समग्र अर्थव्यवस्था भी बुरी तरह से प्रभावित हुई है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि राज्य की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के पास भी फिलहाल ऐसा कोई विकल्प नहीं है, जिससे इन प्रतिकूल हालात पर काबू पाया जा सके। वह कई मौकों पर कह चुकी हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जो कश्मीर को इस संकट से उबार सकते हैं। इस तरह से वह संभवतयः पीपल्ज डेमोक्रेटिक पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के बीच के गठबंधन को रेखांकित करने की कोशिश कर रही हैं, जो कि कंेद्र की सत्ता में आसीन है। नई दिल्ली को इसका भी विश्लेषण करना चाहिए कि शब्बीर शाह जैसे भारत समर्थक लोग आजादी के समर्थक क्यों बन जाते हैं। संभवतयः उन्हें या उनके जैसे अन्य लोगों को प्रत्यक्ष तौर पर वह स्थान नहीं मिल पाया है, जिसकी उन्हें घाटी के मामलों में अपेक्षा थी। ऐसे लोगों के साथ भाजपा का कोई सीधा संपर्क नहीं है। कुछ इसी तरह का मामला यासिन मलिक का भी है, जो इस मसले का समाधान भारतीय संघ के दायरे में रहते हुए चाहते थे, लेकिन नई दिल्ली ने धारा-370 के महत्त्व को इस कद्र समेट कर रख दिया है कि मुख्य शक्ति नई दिल्ली पर केंद्रित हो गई।

नई दिल्ली ने उर्दू के साथ जिस तरह का सौतेला व्यवहार किया है, उससे भी जम्मू-कश्मीर काफी आहत दिखता है। आम तौर पर ऐसा माना जाता है कि उर्दू को महज मुस्लिमों की भाषा माना जाता है। उर्दू की इस उपेक्षा ने इसके तेज को निष्प्रभावी बना दिया है। यदि नई दिल्ली उर्दू को स्वीकार करते हुए इसके प्रचार-प्रसार के लिए आगे आती है, तो यह निश्चित तौर पर कश्मीरियों के मन में पल रहे असंतोष को मिटाने का एक बहाना बन सकता है। भारत के अन्य हिस्सों की ही तरह कश्मीर घाटी के लोग भी गरीबी में जीवन बसर कर रहे हैं। वे अपने जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए एक अदद रोजगार की आस में हैं। निस्संदेह यह रोजगार विकास, जिसमें पर्यटन भी शामिल है, के जरिए ही मिल पाएगा। इसे भी दुर्भाग्यपूर्ण ही माना जाएगा कि कुछ वर्ष पूर्व जम्मू-कश्मीर में बाढ़ से हुई तबाही को लेकर जिस आर्थिक पैकेज की घोषणा की थी, नई दिल्ली अब तक उस वादे को भी पूरा नहीं कर पाई है। मीडिया और राजनीतिक दलों ने इसके लिए कभी सरकार की आलोचना नहीं की। किसी नेता ने भी नई दिल्ली को कभी यह याद दिलाने की कोशिश नहीं की कि वह अपने वादे से मुकर रही है। इस सबकी कश्मीर में दिल्ली के हेय दृष्टिकोण के रूप में व्याख्या की जाती है। मैं आज भी इस बात में विश्वास रखता हूं कि 1953 का समझौता इस स्थिति को सुधार सकता है, जो रक्षा, विदेश मामले और संचार का नियंत्रण भारत को देता है। जम्मू-कश्मीर के मौजूदा हालात के कारण वहां के जो युवा आक्रोशित हैं, उन्हें इस आश्वासन के जरिए अपने पक्ष में किया जा सकता है कि पूरा भारतीय बाजार व्यवसाय करने या सेवाएं देने हेतु उनके लिए खुला है। लेकिन इतने भर से भी किसी बड़े बदलाव की अपेक्षा नहीं की जा सकती। रक्षा, विदेश मामले और संचार के अलावा इस क्षेत्र में जो भी कानून लागू किए गए हैं, वे सब नई दिल्ली को वापस ले लेने चाहिए।

असामान्य परिस्थितियों से निपटने के लिए आज से करीब 26 वर्ष पूर्व जो सशस्त्र बल (विशेषाधिकार) कानून राज्य में लागू किया गया था, वह आज भी प्रभावी है। यदि सरकार इस कानून को वापस लेती है तो इससे कश्मीरी आवाम को जहां कुछ हद तक आश्वासन मिलेगा, वहीं सुरक्षा बलों को भी यह कदम ज्यादा जिम्मेदार बनाएगा। नेशनल कान्फ्रेंस ने महाराजा हरिसिंह से मुक्ति के लिए एक लंबा संघर्ष किया और राज्य को पंथनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक शासन प्रदान करने के लिए इसमें शेख अब्दुल्ला सरीखे आदर्श रहे हैं। लेकिन नई दिल्ली के साथ इसकी बढ़ती नजदीकियों के कारण इसे पिछले विधानसभा चुनावों में हार झेलनी पड़ी थी। चुनावों में पीडीपी को जीत मिली, क्योंकि इसके निर्माता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने हमेशा दिल्ली से उचित दूरी बनाकर रखी।लॉर्ड साइरिल रेडक्लिफ ने जम्मू-कश्मीर के महत्त्व को कोई ज्यादा तवज्जो नहीं दी थी। भारत और पाकिस्तान दो देशों के बीच की विभाजन रेखा को खींचने वाले रेडक्लिफ लंदन में एक न्यायाधीश थे। कई वर्ष बाद एक साक्षात्कार में उन्होंने मुझे बताया कि मैंने इसकी कभी कल्पना तक नहीं की थी कि कश्मीर का महत्त्व इतना ज्यादा बढ़ जाएगा। वह वाकया मुझे उस वक्त याद आया, जब कुछ वर्ष पहले मैं एक उर्दू पत्रिका की पहली वर्षगांठ के कार्यक्रम की अध्यक्षता करने कश्मीर गया था। उर्दू को अनौपचारिक तौर पर देश के सभी राज्यों में अप्रासंगिक बना डाला है। इनमें पंजाब भी शामिल है, जहां अरसा भर पहले उर्दू मुख्य भाषा हुआ करती थी। वास्तव में पाकिस्तान ने जैसे ही उर्दू अपनी राष्ट्रीय भाषा घोषित कर दी, भारत में इसका महत्त्व घटता गया। सामान्य हालात मनोस्थिति पर भी निर्भर करते हैं। कश्मीरियों को समझना होगा कि उनकी पहचान को किसी तरह का खतरा नहीं है और नई दिल्ली को भी उनकी इच्छाओं का आभास है। कश्मीरियों की स्वशासन की गहरी इच्छा के बावजूद नई दिल्ली श्रीनगर को कुछ सत्ता हस्तांतरित करने के लिए तैयार नहीं दिखती। फिर भी यह तथ्य अपनी जगह बना रहता है कि कश्मीरियों की स्वशासन की इच्छा को हर कीमत पर पूरा किया ही जाना चाहिए।

ई-मेलः kuldipnayar09@gmail.com

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