देवभूमि से वीरभूमि तक

By: May 6th, 2017 12:05 am

बेशक राजनीतिक मंचों पर हिमाचल का जिक्र अब देवभूमि से वीरभूमि तक होना स्वाभाविक है, लेकिन इसकी समीक्षा न सहज है और न ही सरल। भाजपा ने पालमपुर बैठक में अपने अंदाज से लेकर राजनीतिक रुआब तक जो माहौल खड़ा किया उसका हर क्षण आत्मश्लाघा से आत्मविभोर कर सकता है, लेकिन क्या हिमाचल की सियासत इतनी सीधी व सरल है कि चुटकी बजाकर ही निष्कर्ष निकल आएगा और यह भी कि अगले तीन दशक का सफर एक तरह की राजनीति से ही संभव होगा। सवालों की सूली पर भले ही कांग्रेस का वजूद लहूलुहान है, लेकिन परिस्थितियों की छांव में भाजपा के अपने अस्तित्व की दरगाह ऐसा आशीर्वाद नहीं बन सकती कि तीन दशकों की बात करना संभव है। बहरहाल देवभूमि के आकार में राजनीति के अपने अक्स हैं और जहां नेताओं के चरित्र से विकास की संभावनाओं का विश्लेषण भी होगा। कुल्लू घाटी में स्की विलेज की संभावना में हम देख चुके हैं कि किस तरह एक परियोजना देव संस्कृति के आलोक में खुर्द-बुर्द हो सकती है और तमतमाया समाज अपने सोचने की क्षमता को भिखारी बना सकता है। देवभूमि के आर्थिक आदर्श में स्की विलेज की परिकल्पना का ध्वंस उतनी ही कठोर राजनीति से सराबोर रहा, जिस तरह बाबरी मस्जिद का ढहना, लेकिन हिमाचली समाज एक अलग परिपाटी बनकर तब भी तटस्थ रहा, जब राम मंदिर मुद्दे पर गिरी शांता सरकार को दोबारा उठने नहीं दिया। ऐसी सियासत ने प्रदेश को दिया क्या और लिया क्या, इसका अवलोकन भाजपा को करना है, क्योंकि देवताओं को अपने मुद्दों की पालकी पर बैठाकर पार्टी ने पर्यटन की एक बड़ी परिकल्पना से प्रदेश महरूम कर दिया। यह दीगर है कि देवभूमि की अपनी शरण के टोने-टोटके इतने मशहूर और असरदार हैं कि जब चुनावी अखाड़े सजते हैं, तो प्रदेश के गोपनीय तंत्र स्थल भी कुछ नेताओं का शृंगार व संस्कार करते हैं। विश्वास पर टिके हिमाचली समाज की खूबी यह भी कि राजनीतिक वादों को भी अरदास मान कर, पार्टियों को विश्वसनीय मान लेता है। राजनीतिक स्थिरता के हिमाचली इतिहास पर देवभूमि का अलंकरण, यहां की सामाजिक विचारधारा का स्थायी आचरण है। इसलिए यहां सियासत में नफरत और आक्रामकता के बजाय समीकरणों  की समीक्षा हुई और जनता ने राजनीतिक शुचिता को सदैव समर्थन दिया। देवभूमि के संदर्भों में आवारा घूमते गोवंश और बंदर की शैतानी में मुद्दों की उछल कूद को देख सकते हैं, लेकिन राजनीति के महासंग्राम में, सामाजिक वजूद के इस दर्द को समझा नहीं जाता। दूसरी ओर वीरभूमि के जिक्र में सम्मानित होते शहीद परिवारों के साथ भाजपा की बुलंद तस्वीर और ‘वन रैंक, वन पेंशन’ का सबूत मोदी सरकार को साधुवाद तो देगा, इसलिए बुद्धिजीवियों में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने यह पुण्य भी कमाया। ऐसे में वीरभूमि का राजनीतिक हस्तक्षेप अगर समझा जाए, तो पंजाब के बाद जम्मू-कश्मीर में अशांति के बारूद ने ऐसे मुद्दों को भी सुलगा दिया। यहां लाश में लिपट कर राष्ट्रीय संवेदना आती है, तो हर घर पूछता है कि दुश्मन के खिलाफ राजनीति से ऊपर है क्या और जब कारगिल के प्रथम शहीद सौरभ कालिया के पिता डा. एनके कालिया को भाजपा सम्मानित कर रही होगी, तो बर्बरता और क्रूरता के दंश न जाने क्या महसूस करते होंगे। शहादत के हर दौर में हिमाचल की भीगी पलकों का उल्लेख केवल दिलेरी नहीं, इस धरती का कर्ज भी तो है। इसलिए जब राष्ट्रीय राजनीति हिमाचल को पिद्दी राज्य या यहां के नेताओं को बौना मान लेती है, तो कुर्बानियों का वह इतिहास जान लेना होगा, जिसके कारण न केवल पहला परमवीर चक्र राज्य की बहादुरी में दर्ज हुआ, बल्कि किसी भी राज्य से कहीं अधिक चार ऐसे पदक लेकर भी यह प्रदेश शांत रहता है। आश्चर्य यह कि अशांत राज्यों की पूजा में सियासत मशगूल होती है और सरकारें मेहरबान रहती हैं, लेकिन राष्ट्र के प्रति वफादार और शांत राज्य की जनता को तसदीक नहीं किया जाता। विश्व का सबसे लंबा रेल पुल कश्मीर घाटी को राजनीतिक आबादी से जोड़ने पर कुर्बान, लेकिन अपनी कुर्बानियों का कर्म करके भी हिमाचल की लेह रेल परियोजना को दो गज जमीन नहीं मिलती। डोगरा रेजिमेंट के वीर इतिहास की वीरभूमि हिमाचल की हैसियत में न इसका मुख्यालय लिखा गया और न ही इसके नाम की कोई रेजिमेंट मिली। सैन्य कोटे पर खड़ी हिमाचली शहादत का मूल्यांकन फौजी वर्दी तो करती है, लेकिन भर्ती के मैदान पर बड़े राज्यों की सियासत जीत जाती है। इसलिए भारतीय इतिहास आज तक अंगीकार नहीं कर पाया कि पहला स्वतंत्रता आंदोलन और पहली शहादत का जाम बजीर राम सिंह पठानिया ने पिया। वीर सपूतों की धरती पर शौर्य को मापा नहीं जा सकता है, लेकिन शहादत में लिपट कर किसी  सैनिक का शव क्षत-विक्षत लौटता है तो उस दर्द का हिसाब राजनीतिक मंच नहीं लगा सकता। इसलिए अगर पालमपुर मंथन में भाजपा ने हिमाचल का देवभूमि से वीरभूमि तक का अर्थ समझ लिया है, तो इसे अभिव्यक्त करने के समय और साधना में मोदी सरकार की अमृत वर्षा करवानी होगी, वरना सरहद पर बारूद की परवाह किए बिना प्रदेश के युवा जान न्यौछावर करते रहेंगे और बदले में मां-बाप की सिसकियों पर कभी-कभार कोई पुरस्कार चस्पां हो जाएगा।

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