धर्म चक्र प्रवर्तन

By: May 6th, 2017 12:12 am

Aasthaधर्म चक्र, समाज में धर्म को स्थापित करने की प्रक्रिया का प्रतीक है। जब व्यक्ति और समाज में भटकाव का स्तर आत्मघाती स्तर तक पहुंच जाए, लक्ष्यों को लेकर विभ्रम पैदा हो जाए तथा सत्य और असत्य के बीच की रेखा इतनी बारीक हो जाए कि दोनों को पहचानना मुश्किल हो जाए तो धर्म चक्र को गतिशील बनाने के लिए कोई न कोई महापुरुष सक्रिय होता है। महात्मा बुद्ध ने विकृतियों को दूर करने और वास्तविक धर्म को स्थापित करने के लिए, वाराणसी के नजदीक सारनाथ से उपदेशों की जो शृंखला प्रारंभ की, उसे धर्म चक्र प्रवर्तन कहा गया। धर्म, मानव-जीवन का अहम हिस्सा है। वास्तव में धर्म संप्रदाय नहीं है। जीवन में हम जो धारण करते हैं, वही धर्म है। धर्म और जीवन एक दूसरे के पूरक हैं। धर्म, जीवन को एक दिशा देता है।  अनुशासन सिखाता है। धर्म हमें जीना सिखाता है। सनातन धर्म, धर्म की इसी गतिशील और सापेक्षिक अवधारणा में विश्वास करना सिखाता है। धर्म के मार्ग पर चल कर आप जीवन के हर सुख को पा सकते हैं, स्वस्थ व निरोगी रह सकते हैं और जीवन के चरम लक्ष्य, मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। धर्मचक्र, धर्म शिक्षा और धर्म स्थापना का प्रतीक है। भगवान बुद्ध ने काशी के निकट सारनाथ में सबसे पहले अपने पांच शिष्यों को धर्म का पाठ पढ़ाया था। धर्म चक्र प्रगति और जीवन का प्रतीक भी है। बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ का उपदेश दिया और इस प्रकार अपने धर्म चक्र को गति दी। धर्म चक्र प्रगति और जीवन का प्रतीक है।

धर्म चक्र को भारत के राष्ट्रीय ध्वज में बीच की सफेद पट्टी में रखा गया है। यह अशोक चक्र, मौर्य सम्राट अशोक के सारनाथ स्थित स्तंभ में उकेरा गया चक्र है, जिसमें 24 तीलियां हैं। प्रत्येक तीली एक आध्यात्मिक सिद्धांत का प्रतिनिधित्व करती है। धर्मचक्र को ब्रह्मांडीय व्यवस्था का प्रतीक भी माना जाता है। धर्म चक्र, धर्म मे गतिशीलता के महत्त्वपूर्ण संदेश को हम सभी तक पहुंचाता है। प्रायः धर्म को रूढ़ मानकर किसी किताब में कही गई बात का उद्धरण देकर लोगों को धर्म का आशय समझाते हैं, अनुभूति के स्तर पर यह बात सही भी हो सकती है लेकिन व्यावहारिक जीवन में तो धर्म गतिशील रहता है।

सच्चा धार्मिक व्यक्ति वही है, जो धर्म के मर्म को पकड़ कर अलग-अलग परिस्थितियों में मर्म के अनुरूप नए-नए ढंग से व्यवहार करता रहता है। आगे बढ़ते रहना ही गति है। भारतीय राष्ट्र ने चक्रध्वज को अपना ध्वज स्वीकार किया, जो उसने गति तत्त्व को जीवन के रहस्य-रूप में स्वीकार किया। धर्म चक्र चेतना का शुद्धिकरण है। धर्म चक्र को विधि का चक्र माना जाता हैं। चक्र को धर्म, विकास, शक्ति एवं सृजन का प्रतीक कहा जाता है। विज्ञान ने हमें शक्ति, गति एवं ऊर्जा प्रदान की है। लक्ष्य हमें धर्म एवं दर्शन से प्राप्त करने हैं।

धर्म ही ऐसा तत्त्व है, जो मानव मन की असीम कामनाओं को सीमित करने की क्षमता रखता है। धर्म मानवीय दृष्टि को व्यापक बनाता है। धर्म मानव मन में उदारता, सहिष्णुता एवं प्रेम की भावना का विकास करता है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है, जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्त्व है, जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। धर्म चक्र, सभी दुखों का निरोधक है।

हमारे अंतःकरण में प्रत्यक्ष लोक का प्रभाव ही अधिक होता है। लोक चक्र मोह, मूढ़ता का भी प्रतीक है। लोक चक्र अज्ञान, अविवेक, अविद्या है, जिसके कारण हम निरंतर राग और द्वेष की चक्की में पिसते रहते हैं। साधारण भाषा में इसे निन्यानबे का फेर कहते हैं।  यह हमारे मन में तनाव-खिंचाव और उत्तेजना पैदा करते हैं। इससे समता नष्ट होती है। विषमता आरंभ होती है। इसी भव चक्र को काटने के लिए हमारे भीतर धर्मचक्र जागते रहना बहुत आवश्यक है।

यदि धर्म चक्र जागता है तो विवेक, विद्या और होश जागता है। लोक चक्र से छुटकारा पाना है तो धर्म चक्र प्रवर्तित करना होगा। लोक चक्र हमारे समस्त दुखों का मूल है। धर्म चक्र सभी दुखों का निरोधक है। धर्मचक्र प्रवर्तन की प्रक्रिया सामूहिक स्तर पर चेतना को उन्नत बनाने का धार्मिक प्रयास है और इस तरह राष्ट्र और विश्व का कल्याण करने मे सहयोगी बन जाती है।

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