प्रकृति के प्रभुत्व से टकराने का दुस्साहस

By: May 1st, 2017 12:07 am

newsबचन सिंह घटवाल

लेखक, मस्सल, कांगड़ा से हैं

प्राकृतिक प्रवाह अपनी राह में आने वाली बाधाओं को हटाने के लिए संघर्ष करती है, तो वह कई भयावह निशान  मानवीय बस्तियों की क्षति के रूप में छोड़ जाती है। उन हालात में हमें प्रकृति के प्रति अपने दृष्टिकोण व व्यवहार को बदलने की अक्ल आती है। दुखद यह कि यह विवेक भी कुछ वक्त के लिए ही रहता है और थोड़े ही वक्त में हम सब कुछ भुलाकर पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं…

प्रकृति की अद्भुत छटा देवभूमि को संवारने व निखारने के लिए हमेशा क्रियाशील रहती है। इस प्राकृतिक प्रक्रिया में पेड़ों व वनस्पतियों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। प्राकृतिक निर्माण की प्रक्रिया में वनस्पति जगत के अतिरिक्त प्राणियों, कीटों व मानवीय प्रयासों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। भगवान ने जिस सुंदर संसार का सृजन किया है, उसमें सभी की भूमिका को सुनिश्चित करते हुए सृजन कार्यों में सकारात्मक भूमिका निभाने की अपेक्षा अभिव्यक्त की है। आज सृजनात्मक क्रियाओं में मानव जिस तरह नए-नए आविष्कारों के जरिए अनुसंधान प्रक्रियाओं द्वारा पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं तथा मानवीय कल्याण के कार्यों में अग्रसर हैं, उससे प्रकृति के आवरण में सुंदरता का समावेश क्रियाशील हो रहा है, परंतु जब-जब हम प्रकृति की निमित क्रियाओं के साथ छेड़छाड़ की प्रक्रिया आरंभ कर देते हैं, तो प्रकृति परिणामस्वरूप विनाश की प्रक्रिया को भी शुरू कर देते हैं। यहां से वरदान बनकर उभरने वाला विज्ञान भी एक श्राप प्रतीत होने लगता है।

हिमाचल के भौगोलिक परिदृश्य पर जब हम नजर दौड़ाते हैं, तो प्राकृतिक सौंदर्य की सुंदर अनुभूति हमारे मन-मस्तिष्क को पुलकित कर देती है। हिमाचल जब कहीं कोई जिक्र चलता है, तो इसकी प्राकृतिक-भौगोलिक सुंदरता का दृश्य सहज ही हमारे जहन में आ जाता है। गौरव के साथ खड़े पहाड़, निरंतर जीवन प्रवाह के साथ बहती नदियां, हरितिमा से ओत-प्रोत वन इस पहाड़ी प्रदेश को एक अलग पहचान देते हैं। वर्तमान में इनसान औद्योगिकीकरण और भीड़भाड़ से हटकर शांत स्थानों पर आशियाने की तलाश में पहाड़ों व वनों से छेड़छाड़ को अंजाम देना शुरू कर दिया है। इस प्रक्रिया में पहाडि़यों को काटना व कुरेदना निरंतर जारी है। प्रतिबंध होने के बावजूद अवैध व अवैज्ञानिक खनन चोरी-छिपे और कहीं-कहीं तो सरेआम जारी है। घने जंगलों तक भी आज के मशीनीकरण ने अपनी पहुंच बना ली है। इसके परिणामस्वरूप पहाडि़यों को समतल बनाने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी है। खड्डों, नालों व प्राकृतिक प्रवाहों से छेड़छाड़ व उन्हें अवरुद्ध करने का खामियाजा व्यक्ति को बरसात के दिनों में सामान्यतः हर वर्ष ही भुगतना पड़ता है। जब प्राकृतिक प्रवाहों की बाधाओं को हटाने के लिए संघर्ष करती है, तो वह इसके कई भयावह निशान  मानवीय बस्तियों की क्षति के रूप में छोड़ जाती है। उन हालात में हमें प्रकृति के प्रति अपने दृष्टिकोण व व्यवहार को बदलने की अकल आती है। दुखद यह कि यह विवेक भी कुछ वक्त के लिए ही रहता है और थोड़े ही वक्त में हम सब कुछ भुलाकर उसी पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं, जहां से सीधे-सीधे प्रकृति के प्रभुत्व को चुनौती मिलती है।

हिमाचल के परिदृश्य में हमें इसकी नाजुक प्राकृतिक व भौगोलिक बनावट को समझना होगा। हिमाचल की स्थिति भी काफी हद तक पहाड़ी राज्य उत्तराखंड से मेल खाती है। कुछ समय पहले केदारनाथ की भयंकर त्रासदी को हमें भूलना नहीं चाहिए। बताने की जरूरत नहीं है कि केदारनाथ में आई आपदा भी प्रकृति को मिली मानवीय चुनौती का ही परिणाम थी। हालांकि उससे मिलते-जुलते हालात कई मर्तबा प्रदेश में भी देखे जा चुके हैं। हर वक्त बदलती पहाड़ी परिस्थितियों में इनसान प्रकृति से छेड़छाड़ करने के बजाय प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए आगे बढ़े, तो भविष्य में घटित होने वाली विभिन्न आपदाओं से बचा जा सकता है। सुंदरता के परिदृश्यों को समन्वय के साथ चित्रित किया जाए, तो सुंदरता प्रदेश की चौगुनी हो जाएगी। सड़कों के विस्तार व नई सड़कों के बनने के क्रम में पेड़ धराशायी होते हैं। प्राकृतिक पहाड़ों की बनावट सड़कों के विस्तार के साथ छिन्न-भिन्न होती है, परंतु जरूरत व जीवन की सुलभता के लिए कुछ हद तक निर्माण प्रक्रिया के आड़े आते पौधों व पहाड़ों को हटाना विकास प्रक्रिया के लिए आवश्यक हो जाता है, परंतु उसी विकास की एवज में पेड़ों को लगाने की प्रक्रिया में कंजूसी करना प्रकृति के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या होगा। हिमाचल में प्रगति पथ के चिन्ह जहां विकास प्रक्रिया को पुष्ट करते हैं, वहीं गतिशीलता जनमानस में परिवर्तन की प्रक्रिया लाती है। हालांकि आज जलावन के विकल्प स्वरूप गैस, विद्युत व सौर ऊर्जा के इस्तेमाल में भयावह वृद्धि हुई है, परंतु जनसंख्या घनत्व का बढ़ता आंकड़ा भूतकाल की परिस्थितियों से भी ज्यादा बढ़ गया है। भूमि के अनमोल बाह्य पटल को हम जितना पेड़ों व तर्कसंगत प्रकृति अनुकूल उपायों से सजाने-संवारने का क्रम जारी रखेंगे, प्रकृति भी मानव को अपने अनमोल उपहारों के फलस्वरूप शुद्ध वायु, जल व निरोगी जीवन वरदान स्वरूप प्रदान करेगी। अभी तक प्रदेश स्वच्छ आबोहवा, पेड़ों की सघनता व प्रचुर पानी की बहुलता के पैमाने पर राष्ट्रीय स्तर से कहीं बेहतर स्थिति में है। प्रकृति से हमें इतना कुछ मिला है, तो हमारा भी फर्ज बनता है कि इसे संवारने व सुंदर बनाने में अपना योगदान दें। अनावश्यक वृक्षों के कटाव व गंदगी के पसरते ढेरों के प्रसार को रोककर हम प्रकृति के प्रति अपने दायित्व निभा सकते हैं।

हिमाचली लेखकों के लिए

लेखकों से आग्रह है कि इस स्तंभ के लिए सीमित आकार के लेख अपने परिचय, ई-मेल आईडी तथा चित्र सहित भेजें। हिमाचल से संबंधित उन्हीं विषयों पर गौर होगा, जो तथ्यपुष्ट, अनुसंधान व अनुभव के आधार पर लिखे गए होंगे।

-संपादक

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