राष्ट्रपति प्रणाली के परोक्ष !

By: May 2nd, 2017 12:05 am

भारत में राष्ट्रपति प्रणाली का मुद्दा संविधान सभा के दौर से प्रासंगिक रहा है। बीते कुछ सालों में भी उसका स्वर ऊंचा और व्यापक हुआ है। एकाध को छोड़ दें, तो तमाम प्रयास गैर-राजनीतिक और विमर्श के स्तर पर रहे हैं। चर्चित लेखक-विचारक भानु धमीजा की नई पुस्तक ‘भारत में राष्ट्रपति प्रणाली’ ने एक बार फिर यह मुद्दा सुलगा दिया है। मीडिया में खबरें छप रही हैं, आलेख छपे हैं, टीवी चैनलों ने इस मुद्दे पर साक्षात्कार किए हैं। बुनियादी सवाल है कि मौजूदा संसदीय प्रणाली में क्या दोष हैं? या राष्ट्रपति प्रणाली तमाम समस्याओं का समाधान है? क्या प्रधानमंत्री मोदी परोक्ष रूप से राष्ट्रपति प्रणाली की तरह ही भूमिका निभा रहे हैं? यह सवाल कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने पुस्तक के लोकार्पण समारोह के दौरान उठाया था। उनके सवाल पूर्वाग्रही हो सकते हैं, क्योंकि राजनीतिक तौर पर वह मोदी विरोधी हैं। लेकिन वरिष्ठ नेता एवं सांसद शांता कुमार मौजूदा प्रणाली में गरीबी, भूख, बेकारी, कुपोषण और एक अदद झोंपड़ी के भीतरी दर्द के जरिए अपनी पीड़ा सार्वजनिक मंच से बयां करते हैं, तो परोक्ष रूप से सवाल प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सत्ता को ही संबोधित कर रहा है। माना जा सकता है कि जो 60 करोड़ भारतीय औसतन 1000 रुपए या उससे कम की माहवार आमदनी पर जिंदा रहने को विवश हैं, वे सिर्फ मोदी सरकार की ही उपज नहीं हैं। बीती सरकारों की अनदेखी और कार्यक्रमों के निकम्मेपन की वे देन हैं, लेकिन वह भारत का मौजूदा यथार्थ है, लिहाजा सवाल भी मौजूदा सरकार से ही किए जाएंगे। भारत के संदर्भों से पहले अमरीका का एक पुराना प्रसंग याद आता है-वाटरगेट कांड। 1970 के दौर में दो साल तक इस मुद्दे को दबाया या लटकाया जाता रहा। अंततः तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। यदि राष्ट्रपति प्रणाली कई तरह के संवैधानिक अधिकार देती है, तो उनसे जुड़े दायित्व भी देती है। बेशक आप शीर्षतम पद पर आसीन हों, यदि गलत किया है, तो उसकी सजा, नियति झेलना तय है। इस तरह राष्ट्रपति प्रणाली के तहत ‘तानाशाह’ वाला आरोपिया तर्क खंडित होने लगता है। लौटकर फिर भारत पर आते हैं। उत्तर प्रदेश चुनाव में एकतरफा, प्रचंड जनादेश हासिल करने के बाद व्याख्याएं होने लगी थीं कि क्या मोदी जी राष्ट्रपति प्रणाली की ओर बढ़ रहे हैं? शशि थरूर का यह आरोप बिलकुल उचित है कि भाजपा और केंद्र सरकार के भीतर बुनियादी तौर पर फैसले प्रधानमंत्री मोदी ही लेते हैं। यह विडंबना है कि मंत्रियों तक को उनके मंत्रालयों के फैसलों की जानकारी नहीं होती। प्रधानमंत्री के निर्देश के बाद ही वे कुछ बोल पाते हैं। कैबिनेट की ‘सामूहिक जिम्मेदारी’ वाले सिद्धांत की खिल्ली उड़ाई जा रही है। यह शासन का एकाधिकारी रूप है। तो फिर राष्ट्रपति प्रणाली लागू करने में क्या दिक्कत है? संसद, विधानसभा से लेकर नगरनिगम तक के चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के नाम और चेहरे पर ही लड़े जाते हैं। सवाल मोदी की अपनी ताकत को बनाए रखने और उसे केंद्रीकृत करने का है। भाजपा में नाममात्र का भीतरी लोकतंत्र बचा है, क्योंकि तमाम रणनीतियां प्रधानमंत्री मोदी बनाते हैं और उन्हें पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के जरिए लागू कराते हैं। आने वाले दिनों में राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति पदों के लिए चुनाव होने हैं, लेकिन पार्टी के किसी भी फोरम पर चर्चा नहीं है। वरिष्ठ नेताओं को भी सुराग नहीं है कि भाजपा की ओर से उम्मीदवार कौन होगा? अचानक घोषणा कर दी जाएगी और पार्टी सांसदों और विधायकों को उसका पालन करना होगा। यदि स्थिति ऐसी एकाधिकारवादी है, तो देश में राष्ट्रपति प्रणाली लागू कर ली जाए। कुछ संशोधनों के साथ नए कायदे-कानून तय कर लिए जाएं, एक राजनीतिक और संवैधानिक प्रयोग किया जा सकता है, वैसे भी संविधान में 100 से अधिक संशोधन किए जा चुके हैं, तो एक और किया जा सकता है। बहरहाल देश की शासन व्यवस्था में बदलाव को लेकर मानसिकता यहां तक बन चुकी है कि आने वाले दिनों में कुछ मिशनरी चेहरे दिल्ली के ‘जंतर-मंतर’ पर बैठने और आंदोलन की शुरुआत करने की योजना बना रहे हैं। एक किताब और कुछ आंदोलनों से भारत में राष्ट्रपति प्रणाली का आगाज हो सकता है, यह सकारात्मकता बनी रहनी चाहिए।

विवाह प्रस्ताव की तलाश कर रहे हैं? निःशुल्क रजिस्टर करें !


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App