‘सदमे की सुनामी’

By: May 8th, 2017 12:05 am

‘16 दिसंबर, 2012 की रात निर्भया के साथ जो हुआ, वह इतना बर्बर, क्रूर, राक्षसी था कि उसने दुनिया में ‘सदमे की सुनामी’ पैदा कर दी। ऐसा लगता है मानो वह किसी दूसरी दुनिया की कहानी है। ऐसे अपराधियों के लिए कानून में किसी भी तरह के रहम की गुंजाइश नहीं है। यह जघन्य से जघन्यतम श्रेणी का जुर्म है। समाज के मानस को झकझोर देने वाला अपराध है। इसमें सिर्फ और सिर्फ फांसी की सजा दी जा सकती है और कुछ नहीं।’ अंग्रेजी के समानार्थी शब्दों में यह फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक मिश्रा ने ‘निर्भया कांड’ के चारों अभियुक्तों को फांसी की सजा बरकरार रखी। हाई कोर्ट और ट्रायल कोर्ट ने भी फांसी की सजा सुनाई थी। इस तरह निर्भया की आत्मा को आज कुछ ठंडक और राहत महसूस हो रही होगी! 2012 की उस सर्द रात में चलती बस में, देश की राजधानी दिल्ली की सड़कों पर, हिंसा और सेक्स के भूखे कुछ युवाओं ने 23 वर्षीया एक छात्रा के साथ जो वीभत्स गैंगरेप किया था, उसके गुप्तांग में लोहे की रॉड घुसेड़ने की कोशिश की थी, अप्राकृतिक कृत्य किए थे और शरीर को दांतों से काटा था, वह किसी दरिंदगी से कम नहीं था। हवस के बाद युवती को नग्न अवस्था में ही, उसके पुरुष मित्र के साथ ही, सड़क पर फेंक दिया था और बस चढ़ाकर मारने की कोशिश की थी। तो लगा मानो दिल्ली एक जंगलराज है, वहां जानवर बसते हैं, जो प्रवृत्ति और व्यवहार में भी पाशविक हैं। वह सामान्य बलात्कार और हत्या का मामला नहीं था। वह दरिंदगी की पराकाष्ठा थी। वह मानसिक विकार की आखिरी हद थी। वह औरत को मनोरंजन और हवस का साधन मात्र समझने की विकृत सोच थी। उन बलात्कारियों और राक्षसों के लिए फांसी की सजा भी कम है। अदालतें और संविधान कानून के मोहताज हैं। अलबत्ता उस दौर में आक्रोश, गुस्सा और आंदोलन इतने उग्र थे कि यहां तक मांग की गई थी कि उन दरिंदों को सरेआम चौराहे पर ‘नपुंसक’ बना दिया जाए और फिर उसी पीड़ा, अपमान और अधूरेपन के साथ जीने को छोड़ दिया जाए। बेशक वह कानूनसम्मत सजा न होती, लेकिन बलात्कारियों और बर्बर राक्षसों को सबक जरूर मिलता। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक पीठ ने जो फैसला सुनाया है, उसका स्वागत अदालत कक्ष में ही तालियों से किया गया। यह प्रतिक्रिया अभूतपूर्व थी। यह फैसला अपने आप में एक उदाहरण साबित हो सकता है। निर्भया कांड ऐसा प्रकरण था, जिसने सड़क और संसद से लेकर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तक सभी पक्षों को झकझोर कर रख दिया था। सरकार बाध्य हुई और बलात्कार के कानून की परिभाषा नए सिरे से तय करने के मद्देनजर जस्टिस जेएस वर्मा और जस्टिस लीला सेठ ( अब दिवंगत) की कमेटी बनाई गई। कानून को सख्त कर बलात्कार के लिए मृत्युदंड का प्रावधान तय किया गया। संसद ने उसे पारित किया, लेकिन बलात्कार और क्रूरता के सिलसिले आज भी जारी हैं। पीठ की तीसरी न्यायाधीश जस्टिस भानुमति ने 114 पन्नों का अपना फैसला अलग सुनाते हुए दुष्कर्म के आंकड़ों को सामने रखा कि 2015 में भी 34,651 केस तो दर्ज हुए हैं। यानी देश में हररोज औसतन 94 ऐसी घटनाएं घट रही हैं। इससे भी अलग देखा जाए, तो राजधानी दिल्ली में औसतन छह दुष्कर्म हररोज किए जा रहे हैं। 2017 में अभी तक 376 मामले सामने आ चुके हैं। जस्टिस भानुमति का मानना है कि सख्त कानून अपराध रोकने के लिए काफी नहीं है। हमें समाज की सोच बदलनी होगी। स्कूली शिक्षा में लैंगिक समानता का पाठ जोड़ने पर सरकार विचार करे। सुनिश्चित करें कि लैंगिक न्याय का मुद्दा कागजों पर नहीं, हकीकत में विकसित हो। स्वामी विवेकानंद का हवाला देते हुए उन्होंने कहा है कि महिलाओं के प्रति व्यवहार आंकना किसी भी समाज के विकास का थर्मामीटर हो सकता है।’ लेकिन निर्भया जैसी घटनाएं देखकर संदेह होता है कि क्या हम वाकई ऐसे सभ्य समाज का हिस्सा हैं, जहां महिलाओं को पुरुषों के समानांतर जीने का मौका देने की बात कही जाती है? इसे विडंबना कहें या त्रासदी अथवा मनोविकार कहें, जब तीन साल की बच्ची को भी ‘निर्भया’ बनाने की करतूत की जाती है! किसी अधेड़ या बुजुर्ग औरत को भी हवस का शिकार बनाया जाता है! प्रधानमंत्री मोदी ने लालकिले से ठीक ही कहा था कि मां-बाप लड़की के बजाय अपने लड़के से पूछना शुरू करें कि कहां गया था? इतनी देर से क्यों आया है? ये कैसे कपड़े पहन रखे हैं? इतने पैसे कहां से आए? इससे भी बढ़कर मां-बाप को खासकर लड़कों की परवरिश करते हुए ऐसे संस्कार देने होंगे, ताकि वे महिलाओं का सम्मान करना सीखें।

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