समझें परिवार का महत्त्व

By: May 17th, 2017 12:05 am

(डा. राजेंद्र प्रसाद शर्मा, जयपुर)

बदलते आर्थिक-सामाजिक परिदृश्य में संयुक्त परिवार बीते जमाने की बात होते जा रहे हैं। एक समय था जब एक ही छत के नीचे दादा-दादी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची और भाई-बहनों से भरा-पूरा परिवार रहता था। आज उसकी जगह एकल परिवार ने ले ली है। समय में तेजी से बदलाव को इस तरह भी देखा जा सकता है कि एकल परिवार भी अब दूर की बात होता जा रहा है। उसकी जगह भी अब लिव इन रिलेशनशिप लेता जा रहा है। जब तक चले तब तक ठीक, नहीं तो दोनों के रास्ते अलग। इसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे हैं। एक समय गर्मियों की छुट्टियां होते ही बच्चे गांव में दादा-दादी के पास रह आते थे, तो कुछ दिनों के लिए नाना-नानी के पास। इन कुछ दिनों में ही परिवार के साथ रहने के संस्कार बच्चों पर इस तरह से पड़ते थे कि वे संस्कारवान, संवेदनशील, तनावमुक्त हो जाते थे। आज छुट्््टियों में भी बच्चों को ट्यूशन, डांस, पेंटिंग या अन्य इसी तरह की गतिविधियों को सीखने के लिए भेज दिया जाता है। इसमें कोई बुराई नहीं है, पर बच्चों के अपनों से दूर रहने के कारण बच्चों में एकाकीपन, स्वार्थीपन, कुंठा, तनाव आदि आ जाते हैं। इन हालात में परिवार को बोझ नहीं, आवश्यकता समझना होगा। यह आज की पीढ़ी को भी समझना होगा, नहीं तो कल के बुजुर्ग आज के युवा ही होंगे। परिवार, सदस्यों को एकजुटता में बांधे रखने का प्रमुख केंद्र है और जब परिवार संस्था का ही अस्तित्व नहीं रहेगा, तो फिर स्थितियां अराजकता की ओर ही कदम बढ़ाएंगी। आओ, परिवार की अहमियत को समझें और परिवार को अपनाएं।

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