समापन की ओर केजरीवाल युग

By: May 5th, 2017 12:05 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

जिस तरह से भारतीय राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में केजरीवाल अप्रासंगिक होते जा रहे हैं, वहां से केजरीवाल युग का अंत करीब दिखने लगा है। एक के बाद एक हार के लिए उन्होंने ईवीएम को कोसना शुरू कर दिया। इसके लिए उनके संरक्षक रहे अन्ना हजारे ने भी केजरीवाल की कड़ी निंदा की। यहां से दोबारा उन्होंने यू-टर्न लेते हुए अपनी गलतियों के लिए दिल्ली की जनता से माफी मांग ली। लेकिन सर्वे दर्शाते हैं कि इस मर्तबा 82 फीसदी लोग उन्हें माफ नहीं करेंगे, क्योंकि इससे पहले भी वह माफी का ड्रामा करके दिल्ली के साथ छल कर चुके हैं…

भारतीय राजनीति ने अपने फलक से कई तारों को टूटते हुए देखा है। इसी क्रम में अब अरविंद केजरीवाल और उनके द्वारा झाड़ू के निशान पर गठित आम आदमी पार्टी भी डूबने के कगार पर आ पहुंचे हैं। भारतीय राजनीति को बदलने की सबसे बड़ी आशा बहुत बड़ी निराशा में तबदील हो चुकी है। दिल्ली में यह बात अब आम सुनने को मिल रही है, ‘अब तो झाड़ू वाले को ही झाड़ू लग गया’। हम राजनीति करने नहीं, राजनीति बदलने आए हैं या भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से उपजे हम देश को भ्रष्टाचार के दलदल से निकालने आए हैं सरीखे जुमले उछालने वाला व्यक्ति आज खुद इस दलदल में धंस चुका है। पंजाब, गोवा या दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) में आम आदमी पार्टी को जो शर्मनाक हार झेलनी पड़ी, उसका एक बड़ा कारण पार्टी द्वारा जारी किए गए झूठे बयान हैं। इन हवाहवाई बयानों ने पार्टी की विश्वसनीयता ही मिट्टी में मिला दी। दिल्ली की जनता ने बड़ा दिल दिखाते हुए या यूं कहें कि क्षमा भाव प्रदर्शित करते हुए पार्टी को इतना भारी बहुमत दिया था कि बाकी दलों का पूरी तरह से सूपड़ा साफ हो गया था। सत्ता में आने से पहले उन्होंने दिल्ली को जो बड़े-बड़े सपने दिखाए थे, उनको चकनाचूर होते भी वक्त नहीं लगा। जब वह दिल्ली में परिणाम देने में विफल रहे, तो कुंठित होकर उन्होंने अराजक और गैर संवैधानिक कृत्यों को अंजाम देना शुरू कर दिया। पंजाब और गोवा में करारी हार झेलने के बाद अब जरूरी हो गया था कि ‘आप’ दिल्ली नगर निगम चुनावों में अपना परचम फहराती। ऐसा इसलिए भी जरूरी था क्योंकि इन चुनावों में उन्हीं मतदाताओं ने अपना फैसला सुनाना था, जो दिल्ली की अगली विधानसभा को चुनेंगे। केजरीवाल को चाहिए था कि वह पार्टी की इस अधोगति को ध्यान में रखकर अपनी गलतियां स्वीकार करते और पार्टी के बेहतर भविष्य के लिए कठिन परिश्रम करते। इस सब को नजरअंदाज करते हुए केजरीवाल एक बार फिर से ओछी और लानत-मलानत वाली सियासत में मशगूल हो गए।

इसे एक उदाहरण के सहारे समझने की कोशिश करते हैं। चुनावों से ऐन पहले केजरीवाल ने लोगों को एक तरह से चेतावनी दी थी कि यदि उन्होंने ‘आप’ के बजाय किसी दूसरे दल को वोट दिए, तो वे डेंगू और चिकनगुनिया रोग से ग्रस्त हो जाएंगे। जनता को मूर्खतापूर्ण धमकी देने के लिए क्या उन्हें इससे घटिया और बेवकूफाना तरीका मिल सकता था? चुनाव जीतने के लिए उन्होंने न केवल धमकियां दीं, बल्कि इससे भी आगे बढ़ते हुए कई लोकलुभावन वादे भी किए। इन्हीं में से एक था कि यदि उनकी पार्टी चुनाव में जीतती है, तो वहां गृह कर माफ कर दिया जाएगा। यह एक तरह से बीमारू सोच की हद थी और दिल्ली की जनता को छलने की आखिरी कोशिश। जो पार्टी अस्तित्व में ही भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए आई थी, उसने उम्मीदवारों को टिकट बांटने के बदले में दो-दो करोड़ रुपए मांगे थे। आम आदमी पार्टी के पूर्व नेता मनीश गुप्ता ने खुद इसका दावा किया था। हो सकता है कि यह राशि कुछ ज्यादा बताई गई हो, लेकिन पंजाब में भी तो पार्टी पर इसी तरह के आरोप लगे। इस तरह से जिस पार्टी का जन्म ही भ्रष्टाचार को खत्म करने के उद्देश्य से हुआ था, आज वह तमाम तरह के भ्रष्टाचार से लथपथ दिखती है। इसके हर तीसरे नेता पर किसी न किसी तरह के आरोप चस्पां हैं। निस्संदेह दिल्ली नगर निगम में पार्टी का प्रदर्शन दयनीय रहा है। यहां से केजरीवाल अपना खोया हुआ आधार वापस पा सकते थे, लेकिन वह सही दिशा और एजेंडे को चुनने में ही विफल रहे। इसके उलट उन्होंने करदाताओं की कमाई का एक बड़ा हिस्सा खुद के प्रचार पर लुटाना शुरू कर दिया। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी जितनी सीटें जीतने में कामयाब रही उसका तो मुझे भी अंदाजा नहीं था, खासकर उन हालात में जब यह पार्टी पिछले दस वर्षों में वहां नगर निगम में कुछ बेहतर करने में नाकाम रही थी। अधिसंख्य राजनीतिक विशेषज्ञ इसका श्रेय नरेंद्र मोदी का दे रहे हैं, चूंकि उत्तर प्रदेश और देश के दूसरे राज्यों में पार्टी को विजय दिलाने में उनकी व्यक्तिगत छवि ने अहम भूमिका निभाई थी। मेरा मानना है कि यदि भाजपा को इतनी बड़ी जीत दिल्ली नगर निगम के चुनावों में मिली है, तो एक हद तक इसमें केजरीवाल खुद भी जिम्मेदार हैं। केजरीवाल की नकारात्मक और बात-बात पर विरोध की घटिया सियासत से न केवल मुझे, बल्कि पूरे देश की जनता को गहरी हताशा हुई है।

यहां तक कि उनके संरक्षक अन्ना हजारे ने भी उनकी कथनी में दोगलेपन से परेशान होकर उनसे किनारा कर लिया। यहां यह बात भी समझ नहीं आती कि वह गोवा चुनावों में क्यों कूद पड़े, जहां पैर जमाने से पहले ही उनकी जमीन खिसक गई। वहां उनके 39 उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई। निश्चित तौर पर इसके पीछे सत्ता का लालच और राष्ट्रीय कद हासिल करने के लिए देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की भूख रही होगी। कई समीक्षकों का मानना था कि उन्हें दिल्ली पर ही अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। वह यदि दिल्ली की जनता को साफ-सुथरा शासन देते, तो इस सकारात्मक पहलू के आधार पर भविष्य में अन्य चुनावों को लड़ने के लिए उन्हें और ताकत मिलती। लेकिन इसकी परवाह किए बगैर नियमों व व्यवस्था को ताक पर रखते हुए उन्होंने कई कार्य अपनी शक्ति से बाहर जाकर भी किए। आईआईटी से डिग्री प्राप्त करने और भारतीय राजस्व विभाग में सेवाएं देने वाले व्यक्ति से जनता को जो उम्मीदें थीं, कटुतावादी व्यवहार और संवैधानिक जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाही दर्शाते हुए केजरीवाल ने उन तमाम आशाओं पर रायता फैला दिया। जिस तरह से भारतीय राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में केजरीवाल अप्रासंगिक होते जा रहे हैं, वहां से केजरीवाल युग का अंत करीब दिखने लगा है। एक के बाद एक हार के लिए उन्होंने ईवीएम को कोसना शुरू कर दिया। इसके लिए उनके संरक्षक रहे अन्ना हजारे ने भी केजरीवाल की कड़ी निंदा की। यहां से दोबारा उन्होंने यू-टर्न लेते हुए अपनी गलतियों के लिए दिल्ली की जनता से माफी मांग ली। लेकिन सर्वे दर्शाते हैं कि इस मर्तबा 82 फीसदी लोग उन्हें माफ नहीं करेंगे, क्योंकि इससे पहले भी वह माफी का ऐसा ही ड्रामा करके दिल्ली के साथ छल कर चुके हैं। अब तो उनकी पार्टी के भीतर से भी बगावत के सुर सुनाई देने लगे हैं और जिस तरह से वह अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं, यहां से उन्हें माफी मिलने की संभावनाएं लगातार धूमिल होती जा रही हैं।

बस स्टैंड

पहला यात्री : सर्वेक्षणों में यह बात निकलकर क्यों आ रही है कि हिमाचल में बहुत कम भ्रष्टाचार है।

दूसरा यात्री : गउओं की तरह यहां हर चीज छोटे स्तर पर ही दिखती है।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com

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