सियासी वसंत की उम्मीद

By: May 9th, 2017 12:05 am

विकास को रेखांकित करता हिमाचल दो नावों पर सवार है। एक वह जिस पर केंद्रीय मदद से घोषणाओं के मंच सजने को उतारू और दूसरी वह जिस पर मुख्यमंत्री का काफिला हर रोज और हर मोड़ को सौगात बांटने निकलता है। कमोबेश इसी डगर पर केंद्रीय  मंत्री नितिन गडकरी ने नेशनल हाई-वे पर राज्य को उतार दिया और जब नई वित्तीय व्यवस्था में 14वें वित्तायोग से लबरेज होते हिमाचली खजाने की चमक-दमक देखी जाएगी, तो मुद्दे भी पलट कर देखेंगे। चुनाव में मुद्दों की तलाशी के बीच पर्वतीय विकास का सिक्का कितना चलेगा, इससे पहले जनता का मूड और भावनात्मक रुख परखना होगा। ऐसे में देखना यह भी होगा कि इस बार हिमाचली सियासत केंद्र की किस हद तक अनुयायी बनती है। भाजपा के पालमपुर मंथन के निष्कर्ष बेशक कार्यकर्ता के मनोबल को ऊंचा कर गए होंगे, लेकिन यहां सवाल कार्यकर्ता से कहीं अधिक तादाद में प्रशंसक बटोरने का रहेगा। यहां का बौद्धिक कौशल हमेशा से सियासत में हस्तक्षेप रखता है, इसलिए विजन की परिपाटियों में नेताओं को खंगाला जाता है। इतना संकेत तो अमित शाह ने दिया कि इस बार मोदी छवि में प्रदेश भाजपा का सितारा खोजा जाएगा। यह असंभव नहीं और भाजपा के वर्चस्व में दौड़ती फिजाओं का रुख भी यही है, लेकिन हिमाचल में राजनीतिक कृतज्ञता का असर, मतदान की मानसिकता को संचालित करता है। ऐसे में जनता यदि वीरभद्र सिंह सम्मोहन को छोड़ना चाहेगी, तो सामने भाजपा में भी व्यक्तित्व की तलाशी होगी। स्वाभाविक रूप से पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के साथ भाजपा सरकारों का अद्यतन इतिहास जुड़ा है, तो ऐसे अक्स के झंडे फहराते रहेंगे। अब बहस में यह उठना भी स्वाभाविक है कि शाह की शाखा मंे जो मंत्र कार्यकर्ता को मिले, उससे हटकर भी भाजपा का अपना प्रादेशिक स्वभाव रहेगा या नहीं। भाजपा-कांग्रेस की निरंतर अदला-बदली करती जनता न इतनी भोली और भली है कि किसी भी पार्टी के राष्ट्राध्यक्ष के आदेशों का पूरा पालन करेगी या इतनी भी क्रूर नहीं कि किसी स्थानीय प्रभावशाली नेता या क्षेत्र को भूल जाए। ऐसे में भले ही शाह ने चुनावी नेतृत्व की बागडोर न सौंपी हो, लेकिन धूमल के कारण प्रदेश में बिछती रही सियासी बिसात इतनी आसानी से जमीन तो नहीं छोड़ेगी। यह दीगर है कि पार्टी के प्रभारी के रूप मे मंगल पांडे के मार्फत चुनावी रणक्षेत्र को कठिन बनाने का संकेत अवश्य ही दिया है और इससे लगता है कि हिमाचल की राजनीति अब अपना हुलिया बदलेगी। अमित शाह ने प्रदर्शन की जिस राजनीति का श्रीगणेश किया है, उसके नए आयाम में हिमाचल की संघर्ष गाथा को समझना होगा और केंद्र से न्याय की उम्मीद भी बढ़ेगी। अटल विहारी वाजपेयी युग से कहीं आगे, जिस परिवर्तन की परिकल्पना में भाजपा खड़ी है, वहां कठिन शीर्षासन के बजाय सीधे खड़े रहने की आवश्यकता कहीं अधिक है। शाह की शैली का असर प्रदेश कांग्रेस तक व्याप्त है, इसीलिए सरकार के अलावा पार्टी ने भी खुद चलने का रोड मैप तैयार किया है। हिमाचल में कमोबेश दोनों पार्टियों के पास एक जैसे और एक समान काडर का प्रतिशत दिखाई देता है, लेकिन चुनावी अंतर में समर्थक वर्ग खड़ा करना पड़ता है। वीरभद्र सिंह और प्रेम कुमार धूमल के मुख्यमंत्रित्व काल ने पार्टी से कहीं आगे अपने लिए समर्थक पैदा किए और इसी आधार पर हिमाचल यूपीए या एनडीए के बजाय अपने नेताओं का प्रकाश देखता रहा है। यहां युद्ध एनडीए बनाम अन्य के बजाय अगर वीरभद्र बनाम अन्य होता है, तो अंजाम की रोचकता में मोदी का ग्लैमर व गंतव्य एक बड़ा फैक्टर होगा। हिमाचल में नए समर्थकों की तलाश में पार्टियां बुद्धिजीवी वर्ग को साथ जोड़ने की कवायद में रहती हैं। बुद्धिजीवी वर्ग राय बना और इसका प्रचार करके, सियासी सक्रियता दिखाता है। दोनों ओर नेताओं की महत्त्वाकांक्षा में युवा नेतृत्व की पड़ताल अगर कोई रास्ता दिखाती है, तो यकीनन बड़े बदलाव की गुंजाइश है, लेकिन विरोध की पतझड़ के बजाय भाजपा को अपनी वसंत चुननी होगी।

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