गलत अनुमानों पर अडि़यल रवैया

By: Jun 21st, 2017 12:05 am

डा. अश्विनी महाजन

लेखक, प्रोफेसर, पीजीडीएवी कालेज दिल्ली से हैं

रिजर्व बैंक का हालिया मौद्रिक नीति व्यक्तव्य कहता है कि 2017-18 के वित्तीय वर्ष की अंतिम छमाही में मुद्रा स्फीति बढ़ सकती है। लेकिन ध्यात्वय है कि रिजर्व बैंक पिछले काफी समय से मुद्रा स्फीति के जो भी अनुमान देता रहा है, मुद्रा स्फीति उससे कम ही रही है। उदाहरण के लिए रिजर्व बैंक ने यह अनुमान दिया था कि 2016-17 की अंतिम तिमाही में मुद्रा स्फीति 5 प्रतिशत होगी, वास्तव में मुद्रा स्फीति मात्र 3.6 प्रतिशत ही रही। इसलिए रिजर्व बैंक के लगातार गलत सिद्ध होते अनुमान, यह दर्शाते हैं कि शायद मुद्रा स्फीति के अनुमान की विधि में कुछ सुधार की जरूरत है…

मौद्रिक नीति कमेटी द्वारा हाल ही में नीतिगत ब्याज दर को नहीं घटाने का निर्णय लिया गया। इस निर्णय की केंद्र सरकार, विशेष तौर पर वित्त मंत्री द्वारा सख्त आलोचना हुई है। वित्त मंत्री और रिजर्व बैंक, विशेष तौर पर उसके गवर्नर के बीच ब्याज दरों को लेकर तनातनी कोई नई बात नहीं है। जगजाहिर है कि सरकार की अधिकांश मौकों पर यह चाहत रहती है कि ग्रोथ को बढ़ावा देने हेतु ब्याज दरों को घटाया जाए। ऐसा इसलिए है कि यदि ब्याज दरें घटेंगी, तो एक ओर निवेश बढ़ेगा और दूसरी तरफ  कार, घर और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ेगी, क्योंकि अब उधार लेना सस्ता होगा। केवल उद्योगों, व्यवसायों में ही नहीं, इन्फ्रास्ट्रक्चर में भी निवेश, ब्याज दर कम होने के कारण आसान हो जाता है। घर खरीदने का सपना हो या कार खरीदने का, ब्याज कम होने पर सभी पूरे हो सकते हैं। यही नहीं, हम मानते हैं कि देश में सबसे बड़ी कर्जदार ईकाई सरकार ही होती है। ब्याज दरें कम होने पर सरकार की ब्याज अदायगी भी कम होती है और बचा हुआ पैसा कल्याणकारी कार्यों के लिए खर्च हो सकता है। लेकिन ब्याज दरों को लेकर रिजर्व बैंक हमेशा सरकार से सहमत नहीं होता। उसका कहना है कि मौद्रिक नीति का लक्ष्य केवल ग्रोथ ही नहीं, कीमत स्थिरता भी है। रिजर्व बैंक का कहना होता है कि चूंकि कीमत वृद्धि थम नहीं रही, इसलिए ब्याज दरों में कमी, मांग को बढ़ाकर मुद्रा स्फीति का कारण बन सकती है। यह जोखिम उठाना कीमत स्थिरता के लक्ष्य के विरुद्ध है।

क्या है केंद्र सरकार का कहना?

प्रमुख आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम का कहना है कि मई माह में चूंकि मुद्रा स्फीति की दर 3.73 प्रतिशत तक पहुंच चुकी थी, इसलिए ब्याज दरों को आसानी से घटाकर अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित किया जा सकता था। यानी कहा जा सकता है कि मौद्रिक नीति कमेटी ने एक मौका यूं ही गंवा दिया है। सामान्य तौर पर मौद्रिक नीति निर्माण में रिजर्व बैंक का यह कहना रहता है कि वास्तविक ब्याज दर घनात्मक होनी चाहिए, इसलिए नीतिगत ब्याज दर को घटाने के लिए पहली शर्त यह है कि मुद्रा स्फीति घटे। इस हेतु नियम के नाते सामान्यतः भारत और शेष विश्व में एक नियम (टेलर नियम) मान्य है, जो स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री जॉन बी. टेलर द्वारा प्रतिपादित किया गया था। इस नियम के अनुसार मुद्रा स्फीति लक्षित नीतिगत ब्याज दर मुद्रा स्फीति की दर से निर्धारित होती है। भारत में ‘रेपो रेट’ नीतिगत ब्याज दर मानी जाती है। इस नियम के अनुसार लक्षित मुद्रा स्फीति में अपेक्षित वास्तविक ब्याज दर जोड़ते हुए, एक प्रतिशत (मुद्रास्फीति अंतर और उत्पादन अंतर के लिए) अतिरिक्त प्रावधान करते हुए नीतिगत ब्याज दर तय की जानी चाहिए। गौरतलब है कि लक्षित मुद्रास्फीति फरवरी 2016 से पहले तो 6 प्रतिशत तय की गई थी, लेकिन उसे उत्तरोत्तर कम करते हुए अप्रैल 2017 से 4 प्रतिशत ही रखा गया है। ऐसे में चूंकि मई माह में मुद्रा स्फीति मात्र 3.73 प्रतिशत तक पहुंच गई है, इसलिए ‘टेलर नियम’ के अनुसार भी नीतिगत ब्याज दर को घटाना अपेक्षित था। शायद रिजर्व बैंक को यह आशंका है कि मुद्रा स्फीति में यह कमी स्थायी नहीं है और संभव है कि मुद्रा स्फीति इससे ज्यादा हो जाए। रिजर्व बैंक का हालिया मौद्रिक नीति व्यक्तव्य कहता है कि 2017-18 के वित्तीय वर्ष की अंतिम छमाही में मुद्रा स्फीति बढ़ सकती है। लेकिन ध्यात्वय है कि रिजर्व बैंक पिछले काफी समय से मुद्रा स्फीति के जो भी अनुमान देता रहा है, मुद्रा स्फीति उससे कम ही रही है। उदाहरण के लिए रिजर्व बैंक ने यह अनुमान दिया था कि 2016-17 की अंतिम तिमाही में मुद्रा स्फीति 5 प्रतिशत होगी, वास्तव में मुद्रा स्फीति मात्र 3.6 प्रतिशत ही रही। इसलिए रिजर्व बैंक के लगातार गलत सिद्ध होते अनुमान, यह दर्शाते हैं कि शायद मुद्रा स्फीति के अनुमान की विधि में कुछ सुधार की जरूरत है। यहीं नहीं, इस आलोक में रिजर्व बैंक को ‘रेपो रेट’ नहीं घटाने की जिद्द पर भी पुनर्विचार की जरूरत है।

उपभोक्ता या थोक मुद्रा स्फीति?

एक अन्य गौरतलब तथ्य यह है कि मुद्रा स्फीति लक्षित मौद्रिक नीति में यह महत्त्वपूर्ण होता है कि मुद्रा स्फीति मापन में कौन सा कीमत सूचकांक लिया जा रहा है। मोटे तौर पर इसके लिए दो विकल्प होते हैं – थोक मुद्रा स्फीति या उपभोक्ता मुद्रा स्फीति। वर्ष 2014 तक मौद्रिक नीति में थोक मुद्रा स्फीति को लक्षित किया जाता था। वर्ष 2014 में रिजर्व बैंक ने उस समय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर उर्जित पटेल की अध्यक्षता में एक कमेटी ने थोक मुद्रा स्फीति को लक्षित मुद्रा स्फीति से बदलकर उपभोक्ता स्फीति को रखने की सिफारिश कर दी। जबकि उसके बाद से मौद्रिक नीति में समिति की सिफारिशों पर उपभोक्ता मुद्रा स्फीति को लक्षित किया जाने लगा। यदि ज्यादा अंतर न हो तो उपभोक्ता मुद्रा स्फीति हो या थोक, कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन भारत के संदर्भ में ऐसा नहीं है। दोनों मुद्रा स्फीतियों में भारी अंतर है और पिछले कई वर्षों से यह अंतर बरकरार है। गौरतलब है कि नवंबर 2013-14 से 2016-17 के बीच थोक मुद्रा स्फीति 1 प्रतिशत वार्षिक रही, जबकि इस दौरान उपभोक्ता मुद्रा स्फीति औसतन 5.8 प्रतिशत वार्षिक रही। इसलिए उर्जित पटेल कमेटी की सिफारिशों के आधार जब लक्षित मुद्रा स्फीति को थोक से बदल कर उपभोक्ता (खुदरा) मुद्रा स्फीति कर दिया गया, थोक मुद्रा स्फीति ऋणात्मक होने के बावजूद ‘रेपो रेट’ घटाने की तमाम संभावनाएं समाप्त हो गईं। अब सवाल उठता है कि थोक मुद्रा स्फीति और उपभोक्ता मुद्रा स्फीति में इतना बड़ा अंतर क्यों है? अत्यंत आसानी से इसे समझा जा सकता है। पिछले कई सालों में उपभोक्ता मुद्रा स्फीति बढ़ने का मुख्य कारण खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि है। चूंकि थोक कीमत सूचकांक में खाद्य पदार्थों का भार मात्र 22 प्रतिशत ही है, इसलिए खाद्य पदार्थों की कीमत वृद्धि का ज्यादा प्रभाव थोक कीमत सूचकांक पर नहीं पड़ता। इसलिए रिजर्व बैंक द्वारा उपभोक्ता (या खुदरा) मुद्रा स्फीति का चयन, मुद्रा स्फीति लक्ष्य में यह इंगित करता है कि शायद रिजर्व बैंक का झुकाव ऊंची ब्याज दर की ओर है,

लेकिन ब्याज दर में कमी है बहुत जरूरी

आज दुनिया में जो मंदी व्याप्त है और निर्यात आधारित मांग में ग्रोथ की संभावनाएं बहुत कम हैं। निवेश (चाहे व्यवसायों में हो या इन्फ्रास्ट्रक्चर में) में वृद्धि भी बहुत जरूरी है। ऐसे में ब्याज दर में कमी बहुत जरूरी है, लेकिन एक ओर उपभोक्ता मुद्रा स्फीति लक्षित मौद्रिक नीति और दूसरे, रिजर्व बैंक की लगातार गलत सिद्ध होते मुद्रा स्फीति के अंदाज के बावजूद रेपो रेट को नहीं घटाया जाना, इस बात की ओर इंगित करते हैं कि शायद रिजर्व बैंक ब्याज दर को नहीं घटाने की जिद लिए हुए है, जो देश की अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए बिलकुल ठीक नहीं है।

ashwanimahajan@rediffmail.com

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