प्रेस की आजादी के मायने

By: Jun 12th, 2017 12:02 am

इधर प्रेस की आजादी पर बहस छिड़ी है, लेकिन प्रेस में ही असहमतियां हैं। कई अंतर्विरोध भी हैं। फिलहाल संदर्भ एनडीटीवी चैनल के प्रोमोटर प्रणय राय और उनकी पत्नी राधिका राय का है। सीबीआई ने उनके आवास और कुछ अन्य जगहों पर छापे मारे थे। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने भी धन शोधन कानून के तहत केस बना रखा है, लेकिन एनडीटीवी का प्रसारण बदस्तूर जारी है, उसे विज्ञापन भी मिल रहे हैं, प्रायोजक भी मौजूद हैं, उनके कार्यक्रमों और बहसों की स्वायत्तता भी बरकरार है। तो सीबीआई के छापों को प्रेस की आजादी पर हमला कैसे माना जा सकता है? बीती 9 जून को प्रेस क्लब ऑफ  इंडिया के आंगन में कुछ वरिष्ठ, नामचीन, गुमनाम, बूढ़े और युवा पत्रकार जमा हुए। राय परिवार पर सीबीआई के छापों को प्रेस की आजादी का हनन करार दिया गया। बयान यहां तक दिए गए कि प्रधानमंत्री मोदी ने एक दूसरा ही आपातकाल पैदा कर दिया है। तमाम टिप्पणियां, एनडीटीवी और प्रणय राय तक सीमित रहीं, लेकिन मोदी सरकार के सूचना मंत्रालय के तहत डीएवीपी ने एकदम 4000 के करीब छोटे अखबारों और पत्रिकाओं के विज्ञापन बंद कर और उन्हें ‘काली सूची’ में डाल कर सैकड़ों परिवारों की ‘रोजी-रोटी’ छीनने की कोशिश की है, उस संदर्भ पर एक भी शब्द नहीं बोला गया। शायद बड़े और महान पत्रकारों को जानकारी भी नहीं होगी कि छोटे अखबारों के साथ ऐसा किया गया है! पाठक खुद ही तय करें कि प्रेस को कहां कुचला गया है? इसके अलावा, 2017 के शुरू में ही बड़े अंग्रेजी अखबार ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने अपने 4 संस्करण और 3 ब्यूरो बंद करने का फैसला लिया था। फैसले के बाद करीब 1000 पत्रकार बेरोजगार हुए होंगे। यह तो इस समूह की पुरानी परंपरा है, क्योंकि पहले भी 350 से ज्यादा पत्रकारों की अचानक ‘छुट्टी’ कर दी गई थी। ऐसी छंटनियां मीडिया में होती रही हैं। सबसे बड़े अंग्रेजी अखबार ‘टाइम्स ऑफ  इंडिया’ ने भी नई भर्तियों पर पाबंदी लगा रखी है। ‘आउटलुक’ हिंदी के संपादक आलोक मेहता को अचानक ही हटाया गया, तो उनकी टीम के पत्रकारों पर भी गाज गिरी। मोदी सरकार की विज्ञापन नीति और प्रेस की उपेक्षा करने की मानसिकता ने भी छोटे अखबारों को लगभग मार ही दिया है। अरुण शौरी, एचके दुआ, निहाल सिंह, शेखर गुप्ता, राज चेंगप्पा आदि स्वनामधन्य पूर्व संपादकों ने कभी एक भी आवाज उठाई है कि प्रेस की आजादी को दफन किया जा रहा है? दरअसल बुनियादी सवाल तो यह है कि अरुण शौरी पत्रकार हैं या मंत्री-सांसद…? एचके दुआ पत्रकार हैं या प्रधानमंत्रियों के सलाहकार अथवा राजनयिक या राज्यसभा सांसद हैं? अमित शाह के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद भाजपा ने पत्रकारों, संपादकों के लिए एक आयोजन किया था, जिसमें ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के तत्कालीन प्रधान संपादक शेखर गुप्ता ने ‘गणवेश’ में अपने फोटो दिखाते हुए शाह को यकीन दिलाने की कोशिश की थी कि वह भी आरएसएस की शाखा में जाते रहे हैं। फली नरीमन तो सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं, उनका पत्रकारों के बीच क्या काम था! संविधान की इतनी जानकारी तो राष्ट्रीय स्तर पर काम करने वाले प्रत्येक पत्रकार को होगी! अरुण शौरी जब ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादक थे, तब समूह में किसी मुद्दे पर हड़ताल हुई थी। ‘जनसत्ता’ के तमाम पत्रकार हड़ताल पर रहे, लेकिन शौरी कहीं और दफ्तर को ले जाकर अखबार छपवाते रहे। उन्हें ‘तानाशाह संपादक’ माना जाता था। 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले वह उनके करीब थे और गुणगान भी करते थे। चूंकि मोदी ने उन्हें मंत्री नहीं बनाया और राज्यसभा का एक और कार्यकाल नहीं दिया, तो उनके घोर विरोधी हो गए। अब प्रेस की आजादी की आड़ में प्रधानमंत्री को गरिया रहे हैं कि आपातकाल जैसे हालात पैदा कर दिए हैं। शेष बूढ़े और अपने दौर में खूब ‘अवसर’ लूटने वाले पत्रकार-संपादक प्रेस की आजादी की बात किस मुंह से कर सकते हैं। दरअसल प्रणय राय पर घपलेबाजी के कई आरोप हैं। उन्हें किताबों के जरिए और सोशल मीडिया पर सार्वजनिक किया जा रहा है। एनडीटीवी और मुकेश अंबानी की कंपनी ‘रिलायंस’ के बीच शेयरों का किस तरह लेन-देन हुआ, ऐसे खुलासे भी हैं। प्रणय राय की कौन सी फर्जी कंपनियां भी थीं, उनके भी उल्लेख हैं। प्रणय ने दूरदर्शन पर ‘इंडिया दिस वीक’ कार्यक्रम करने के बाद महत्त्वपूर्ण फुटेज, वीडियो आदि हथिया लिए थे, उनकी एक अलग कहानी है, हालांकि सीबीआई उस केस को बंद कर चुकी है, लेकिन वह केस संसदीय समिति तक गया था। हम किसी भी आरोप की पुष्टि नहीं करते, क्योंकि ये आपराधिक मामले हैं। यदि सीबीआई ने राय परिवार के घर पर छापे मारे हैं, तो कुछ न कुछ बुनियादी सामग्री जरूर होगी। सीबीआई और ईडी हवा में छापे नहीं मारा करतीं। इन मामलों को प्रणय राय और जांच एजेंसियों के बीच ही रहने दिया जाए, लेकिन एनडीटीवी वाले प्रेस की आजादी का खोल न ओढ़ें, क्योंकि वे सभी संभ्रांत और अमीर घरों से आते हैं, अदद पत्रकारों की पीड़ा, उनके तनाव, प्रताड़नाएं आदि न तो वे जानते हैं और न ही उन्होंने कभी साझा की हैं। लिहाजा प्रेस क्लब के कार्यक्रम में एनडीटीवी और कुछ छद्म वामपंथी पत्रकारों को छोड़ कर कोई और शामिल नहीं था। क्लब के सदस्य क्लब में ही बैठे रहे और प्रणय के अतीत को लेकर सवाल करते रहे और प्रेस की आजादी के मायने समझाते रहे, लेकिन इस अभियान में संपूर्ण मीडिया एनडीटीवी के साथ नहीं है। यह विभाजन प्रेस की आजादी के मायने साफ  कर देता है।

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