प्रेस की आड़ में ‘घोटालेबाज’

By: Jun 13th, 2017 12:05 am

बीते कल एनडीटीवी चैनल के चेयरमैन प्रणय राय और प्रेस की आजादी के अंतर्विरोधों पर हमने लिखा था, लेकिन प्रेस की आड़ में काले धंधे करने वालों, घोटालेबाजों और हत्यारों की भी एक लंबी सूची है। उनमें ज्यादातर आज भी जेल में हैं। जब उन्होंने अपराध किए, घोटालों में शामिल रहे, कुकर्मों की एक पूरी प्रक्रिया निभाई, तब न तो प्रेस की आजादी का शोर उभरा और न ही प्रेस पर हमलों का रोना रोया गया,क्योंकि अपराध आईने की तरह स्पष्ट थे। यह प्रेस की ऐसी जमात है, जिनका पत्रकारिता से कोई सरोकार नहीं है। दरअसल वे बुनियादी तौर पर दुकानदार या ठेकेदार हैं, लेकिन किन्हीं मुगालतों में आकर प्रेस को अपना कवच बना लिया। सोचा होगा कि प्रेस का ठप्पा लगा लेने से कोई भी छूने तक का दुस्साहस नहीं करेगा, लेकिन अपराधों के कारण जब जेल के सींखचों के पीछे सड़ना पड़ा, तो उन्हें, उनके हमदर्दों को और कुछ भाषणबाज पत्रकारों को एहसास हुआ होगा कि यह प्रेस की आजादी के मामले नहीं हैं। प्रेस अपराधों के खिलाफ  ढाल नहीं बन सकती। इस संदर्भ में सबसे पहले बंगाल का शारदा घोटाला सामने आता है। सुदिप्तो सेन कुछ स्कीमें चलाकर लाखों गरीब लोगों के करीब 6000 करोड़ रुपए डकार गया। उसमें से कुछ रकम के जरिए उसने शारदा मीडिया हाउस की भी स्थापना की। एक न्यूज चैनल की शुरुआत की गई और एक अखबार का प्रकाशन भी शुरू किया गया। सुदिप्तो आज जेल में है। क्या यह कानूनी कार्रवाई प्रेस पर हमला करार दी जा सकती है? इसके अलावा,पी-7 चैनल, शुक्रवार पत्रिका और बिंदिया पत्रिका का मालिक निर्मल सिंह भंगू करीब 28,000 करोड़ रुपए के घोटाले में जेल में है। उस पर रीयल एस्टेट के भी आरोप हैं। कुबेर टाइम्स,जेवीजी टाइम्स नामक अखबारों के मालिकों को भी धोखाधड़ी, फ्रॉड, घपलेबाजी के लिए गिरफ्तार किया गया था। स्टार न्यूज के सीईओ रहे पीटर मुखर्जी और उनकी पूर्व पत्नी इंद्राणी मुखर्जी बेटी की हत्या के अपराध में जेल में हैं। सवाल है कि इन मामलों को किसी भी तरह प्रेस की आजादी पर व्यवस्था का हमला माना जा सकता है? फेहरिस्त यहीं समाप्त नहीं होती। सुदर्शन न्यूज चैनल के मालिक सुरेश चव्हाण को बलात्कार सरीखे अमानवीय अपराध के कारण जेल जाना पड़ा। तहलका पत्रिका के समूह संपादक रहे तरुण तेजपाल को अपनी ही साथी कर्मचारी के साथ यौन उत्पीड़न के कारण जेल की सजा भुगतनी पड़ी। लाइव इंडिया चैनल के मालिक महेश मुत्तेवार एक चिट फंड कंपनी भी चलाते थे। उसमें गोलगपाड़े के कारण वह इन दिनों जेल में हैं। न्यूज एक्स चैनल का मालिक बाला जी भापकर ने भी चिट फंड कंपनी में करोड़ों के घोटाले किए। नतीजतन परिवार समेत जेल में है। कुछ ऐसा ही केस सहारा समूह के चेयरमैन सुब्रत राय का है। चिट फंड कंपनी के जरिए उन्होंने हजारों करोड़ रुपए डकारे, लेकिन निवेशकों का पैसा नहीं लौटाया। ऐसे आरोप सुप्रीम कोर्ट ने तय किए थे। सहारा समूह के अखबार भी हैं और न्यूज चैनल भी,लेकिन कोई भी सहारा श्री को जेल जाने से नहीं बचा सके। वह कुछ साल तक जेल में रहे हैं। जेल जाना और फिर पैरोल पर बाहर आ जाना…यही सिलसिला चल रहा है, लेकिन सहारा श्री दोषमुक्त नहीं हो पाए हैं। प्रेस की आड़ में जो चिट फंड के अपने काले धंधों को छिपाना चाहते थे, वे कामयाब नहीं हो पाए। वे सजायाफ्ता हैं। क्या ऐसे लोगों और कंपनियों के लिए कोई नारा लगा सकता है कि प्रेस की आजादी का अपहरण किया गया है? एक और नायाब उदाहरण है। अकसर देशभक्ति पर भाषण देने वाला जी- न्यूज का संपादक एवं एंकर सुधीर चौधरी 100 करोड़ रुपए की वसूली के चक्कर में जेल गया था। यह राशि जिंदल स्टील के सहमालिक नवीन जिंदल से मांगी गई थी। उनकी शिकायत पर सुधीर को जेल जाना पड़ा। फिलहाल वह जमानत पर है। ऐसे ‘घोटालेबाज’ और ‘दागदारों’ की सूची काफी लंबी है। एनडीटीवी के मालिक प्रणय राय पर भी कई आपराधिक मामले दर्ज हैं। प्रेस क्लब ऑफ  इंडिया पत्रकारों का क्लब है, न कि मालिकों का। सवाल है कि बीते दिनों कई अखबारों के देश भर में करीब 5000 पत्रकारों और अन्य अखबार कर्मियों की नौकरियां गईं। तब एडिटर्स गिल्ड और प्रेस क्लब ने प्रेस की आजादी का स्यापा नहीं किया? दरअसल प्रेस की आजादी के मायने सिर्फ एनडीटीवी से ही नहीं हैं। मजीठिया वेतन बोर्ड का संदर्भ आता है, तो ये मालिक बनाम दलाल खामोश रहते हैं। वैसे भी भारतीय प्रेस परिषद (प्रेस काउंसिल ऑफ  इंडिया) टीवी चैनलों की पत्रकारिता को मान्यता नहीं देती और न ही भारत सरकार के मान्यता प्राप्त एकमात्र पत्रकार-संगठन ‘प्रेस एसोसिएशन’ की सदस्यता इन चैनलों को नसीब है। आज भी प्रिंट मीडिया ही बुनियादी पत्रकारिता का रूप माना जाता है। चैनल निजी दुकानदारी है। प्रेस की आजादी की इनकी अपनी ही परिभाषा और व्याख्या है, जिसे आपराधिक मामलों से अलग रखा जाना चाहिए। सीबीआई के छापे और प्रेस की आजादी परस्पर पूरक नहीं हैं। दोनों की भिन्न भूमिकाएं हैं, लिहाजा उन्हें निभाने देना चाहिए। प्रेस की आजादी के साथ खिलवाड़ इतना आसान नहीं है।

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