भाजपा के साथ शिमला

By: Jun 21st, 2017 12:02 am

शिमला नगर निगम के ऊपर भगवा पताका के मायने कांग्रेस को अवश्य ही विचलित करेंगे। ऐसे में हिमाचल कांग्रेस को अपनी क्षति और क्षरण के बीच फासला मापते हुए भाजपा के क्षितिज को अंगीकार करना पड़ेगा। इसका अर्थ अगर भाजपा और जीत के साथ जुड़ रहे पर्यायवाची बोध से निकलता है, तो हिमाचल में यह बार-बार हो रहा है। अतीत में कुछ चुनाव व उपचुनाव अगर भविष्य की रोशनी हैं, तो सफर के मुकाम पर खड़े एहसास को कबूल करके कांग्रेस को अपनी हार पर मंथन करना होगा, वरना भाजपा के पास इतराने की नजाकत से इनकार नहीं किया जा सकता। नगर निगम की मेयर व डिप्टी मेयर राकेश का चयन अंततः शिमला के परिचय का नया राजनीतिक शिलालेख है। यहां शिमला खुद से भी पूछ रहा है कि वह असल में है किसका। बेशक सियासी व प्रशासनिक तौर पर जो मूल्यांकन जनता ने किया, उसके सदके परिणामों की चांदनी में भाजपा खड़ी है, लेकिन अब प्रदर्शन की राह में माल रोड की चर्चाओं से आगे जाना है। एक विरासत भाजपा ने छीन ली और इसे राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा की जीत मान कर पार्टी आगे मंजिल तय कर सकती है, लेकिन शिमला अब महज राजनीति नहीं इतिहास की पलकों पर सवार होकर भविष्य से मुखातिब होना चाहेगा। शिमला का अपना धरोहर संसार और मानवीय शिष्टाचार रहा है। नगर निगम चुनाव की दौलत में राजनीति भले ही अपनी अमानत देखे, लेकिन शिमला एक अलग ब्रांड भी तो है। यह ब्रांड महज कॉफी हाउस या माल रोड होता, तो जीत के जश्न में शरीक हो जाता, लेकिन शहर को सदा अपने बाशिंदों पर नाज रहा है। विडंबना भी यह है कि शहर का नागरिक दोहन इसके अस्तित्व को परेशान कर रहा है। इस पर भी अगर सियासत महज जीत बनकर रह जाएगी, तो शिमला अपने मकसद से दूर रहेगा। शहर जब बस्ती बनता है, तो हस्ती कम आंकी जाती है। विडंबना यह है कि हमने इसके विकास का राजधानी के रूप में माल्यार्पण नहीं किया। शहर की सीमा में भाजपा का उदय प्रशंसनीय है, लेकिन राजधानी का उदय अभी बाकी है और यही अंतर नगर निगम की बैसाखियां तोड़ेगा। शिमला राजधानी क्षेत्र के रूप में इसकी भौगोलिक, सामाजिक-सांस्कृतिक, प्रशासनिक व आर्थिक आकृति में बदलाव की एक बड़ी गुंजाइश है। शायद अब वे नागरिक समूह नहीं बचे, जिन्होंने शिमला की जवानी को बूढ़े शरीर में जाते हुए देखा या जो इसकी पहचान के साथ चलते रहे। अब शिमला केवल प्रतीकों और पैमानों तक ही शहर नहीं रहा, बल्कि इनके बाहर संघर्ष और नए संसर्ग का पड़ाव बन गया। पूरा प्रदेश यहां अपने हिस्से का शिमला देखता है, लेकिन ऐसे आश्रय का यह शहर नहीं बना। शिमला अपने होने के एहसास में जो रंग भर रहा है, उस परिदृश्य में बेचैनी-व्याकुलता है। कहीं शहर की आहें हैं, तो कहीं बाहों पर व्यावसायिक उद्दंडता आकर बैठ गई। शिमला में हिमाचल अगर आज अपनी हिफाजत के संस्थान ढूंढे तो केवल कार्यालयों के मुख्यालय व भीड़ में लटके जीवन की दौड़ बची है। ऐसे में शिमला किसी एक राजनीति का नहीं हो सकता और न ही इसे ऐसी जंजीरों में बांधकर प्रतिष्ठित कर सकते, फिर भी अब भाजपा को शहर की नीयत में अपनापन देना होगा। यह शहर वह नहीं, जो रोजाना मुख्य बस स्टैंड पर उतरता है या ट्रैफिक जाम में फंस कर समय गुजारता है। यह स्वच्छता के मापदंडों का एक नैसर्गिक नजराना रहा है, तो इसकी आबरू को छीनते विषाद को मिटाना पड़ेगा। शिमला के लहजे में सियासत हालांकि मेल नहीं खाती, फिर भी नागरिक विमर्श में राजनीतिक संजीदगी है। शहर रुकता नहीं है और नागरिक पांवों पर चलता रहा है, तो अब भाजपा के कदमों  में बंधे जीत के घुंघरू सुने जा सकते हैं। वादों की हरियाली के बीच राजनीतिक मानसून का इजहार, नगर निगम की जीत में है। भाजपा अपने जीत के मौसम में कितनी खेती कर पाती है, यह शिमला खामोशी के बजाय उत्साह में देखना चाहेगा। भाजपा नेताओं के लिए किसी सौगात से कम नहीं रहे ये चुनाव, लेकिन अब इस शहर को भी गुनगुनाने का मौका चाहिए। शिमला के प्रारूप में भाजपा का प्रवेश केवल सियासत भर नहीं रहेगा, बल्कि इस आहट में सुबह होने का अलार्म बज रहा है।

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