भारत में कोई जातिवाद खत्म नहीं करना चाहता

By: Jun 30th, 2017 12:05 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

प्रो. एनके सिंहराष्ट्रपति पद के लिए एनडीए की तरफ से दलित उम्मीदवार के नाम की घोषणा की गई। इसके साथ यह भी दावा किया गया कि इस घोषणा का आधार महज जाति नहीं है, बल्कि उनके अनुभव और शैक्षणिक योग्यता को भी ध्यान में रखा गया। विपक्षी दल इस बात का पचा नहीं पा रहे थे। अंततः विपक्ष भाजपा के बुने जाल में फंस गया और उसने भी मैदान में दलित नेता उतारने का ऐलान कर दिया। इस तरह से अब विपक्ष ने राष्ट्रपति चुनाव को जातिगत लड़ाई बना डाला…

संविधान निर्माताओं ने भारतीय समाज के दबे-कुचले वर्गों के कल्याण के उद्देश्य से कई अस्थायी प्रावधान किए थे, ताकि ये भी समाज के अगड़े वर्गों के साथ मिलकर आगे बढ़ सकें। मैरिट को दबाने की इस प्रक्रिया के विरोध में कोई खड़ा न हो जाए, इसके लिए उस वक्त उन्होंने आरक्षण के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए दस वर्ष की समय अवधि निर्धारित की थी। अब अगर जाति आधारित राजनीति खत्म हो जाए, तो समाज के विभिन्न वर्गों में समानता आएगी और विभिन्न सरकारी पदों पर नियुक्तियों और चयन की प्रक्रिया में मैरिट की भावना को प्रोत्साहन मिलेगा। इसमें कोई संदेह ही नहीं होना चाहिए कि कोई भी देश अपने यहां विभिन्न पदों पर नियुक्तियों के लिए प्रतिभा और योग्यता को प्रोत्साहन दिए बगैर आगे नहीं बढ़ सकता। लिहाजा आरक्षण के तहत विभिन्न वर्गों को नियुक्तियों में दिए जाने वाली रियायतों के प्रतिकूल परिणाम भी हमें झेलने पड़ते रहे हैं। मान लीजिए कि एक पायलट या डाक्टर की नियुक्ति विभिन्न जातियों को मिलने वाले कोटे के आधार पर होती है। तो क्या इस आरक्षण के चलते हमें अपूर्व प्रतिभा वाले व्यक्तियों या अन्वेषकों को प्राथमिकता के आधार पर आगे नहीं बढ़ाना चाहिए? यदि इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन) में भी विभिन्न पदों को कोटा के तहत मिलने वाली रियायतों के जरिए भरा जाता, तो देश की अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी या विज्ञान की प्रगति का भविष्य क्या होता? दूसरी तरफ इन जातियों के कई ऐसे लोग भी आरक्षण का लाभ ले रह हैं, जो सामान्य वर्ग के प्रतियोगियों से प्रतियोगिता के लिए हर तरह से सक्षम और योग्य हैं। सौभाग्यवश इस दिशा में हालात इतने भी बदतर नहीं हो सके, क्योंकि माननीय उच्चतम न्यायालय ने इस आरक्षण की सीमा 50 फीसदी निर्धारित कर रखी है।

इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही माना जाएगा कि संविधान में आरक्षण की जो 10 वर्षीय अस्थायी व्यवस्था की गई थी, उसमें अनिश्चित तौर पर विस्तार होता जा रहा है। इतना ही नहीं, इस व्यवस्था के दायरे में आने वाली जातियों की संख्या में भी निरंतर इजाफा हुआ है। आरक्षण की इस परंपरा को आगे बढ़ाने में सभी राजनीतिक दलों की अनूठी एकता देखने को मिलती है, क्योंकि भारत जाति या समुदाय आधारित राजनीति के दलदल में में बुरी तरह से धंस चुका है। हम मौजूदा दौर में इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते कि कोई राजनीतिक दल अपनी खूबियों के आधार पर वोट मांगे और सभी को समान अवसर दे, जो कि गणतंत्र की भी मूल व सच्ची भावना है। यहां तक कि मोदी खुद उसी वोट बैंक के प्रभाव से ग्रस्त नजर आते हैं, जिसने भारतीय राजनीतिक तंत्र को दूषित कर रखा है। इस परंपरा का तब तक कोई अंत नजर नहीं आता, जब तक चयन बोर्डों के समक्ष हर भारतीय समान नहीं होगा। अभी कुछ समय पहले संपन्न हुए उत्तर प्रदेश चुनावों में भी टिकटों के आबंटन से लेकर प्रचार अभियान तक में जातिगत कारक पूरी तरह हावी रहे। यादव परिवार मुलायम के पक्ष में थे, तो मायावती दलित वोटों का दंभ भरती नहीं थकीं। वहीं मुस्लिम मतदाताओं को दोनों ही दल अपने-अपने पाले में खींचने का प्रयास कर रहे थे, क्योंकि उम्मीद जताई जा रही थी कि वे मोदी को कभी अपना वोट नहीं देंगे। इन तमाम समीकरणों के बावजूद मोदी ने वहां करीब दो तिहाई सीटें जीतकर योगी आदित्यनाथ को राज्य का नया मुख्यमंत्री बनाया, जो कि राजपूत हैं और ऊपर उल्लिखित किसी जाति में नहीं आते।

आदित्यनाथ की खूबी ही यही है कि वह योगी हैं, जो कि हर हिंदू जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं। जैसे ही उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर कार्यभार संभाला, उन्होंने दलितों समेत अपने चुनावी क्षेत्र की समूची हिंदू जनता को संबोधित करते हुए कुछ हिंदूवादी विषयों को छुआ। लिहाजा गाय इसमें केंद्र बिंदु बनी। निःसंदेह इस कुटिल व दक्ष रणनीति ने तमाम हिंदू जातियों को एक छाते के नीचे ला दिया और वह अब भी इसी अनूठी रणनीति को आगे बढ़ा रहे हैं। इस दिशा में मोदी का दृष्टिकोण हिंदूवाद को उभारकर जाति आधारित राजनीति को खत्म करने का है और इसमें एक अंतराल पर सभी के साथ समान व्यवहार किया जाएगा। यह मोदीवाद है, न कि आरएसएस अथवा हिंदू राष्ट्र का एजेंडा। इसके अंतर्गत हिंदू बहुसंख्यक तो प्रभावी बने रहेंगे, लेकिन बाकियों के साथ भी समान न्याय होगा। चाहे जो भी कहा या किया जा रहा हो, लेकिन जब राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों का चयन किया गया, तो उसमें एक बार फिर से जातिगत कारकों को ध्यान में रखा गया। राष्ट्रपति उम्मीदवार के नाम पर हर पक्ष ने अपनी पसंद को एक राज बनाकर रखा। बाद में अचानक राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए की तरफ से दलित उम्मीदवार के नाम की घोषणा की गई। इसके साथ यह भी दावा किया गया कि इस घोषणा का आधार महज जाति नहीं है, बल्कि उनके अनुभव और शैक्षणिक योग्यता को भी ध्यान में रखा गया। विपक्षी दल इस बात का पचा नहीं पा रहे थे। अंततः विपक्ष भाजपा के बुने जाल में फंस गया और उसने भी मैदान में दलित नेता उतारने का ऐलान कर दिया। इस तरह से अब विपक्ष ने राष्ट्रपति चुनाव को जातिगत लड़ाई बना डाला। कांग्रेस को अपने सरोकार जाहिर करते हुए किसी नामवर मुस्लिम या जनजातीय क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाले चेहरे को आगे लाना चाहिए था। कांग्रेस ऐसा करती तो मोदी का आइडिया पिट जाता, लेकिन ऐसा लगता है कि पार्टी में मौलिक विचारों की अकाल है, वहीं मोदी इस मामले में कहीं आगे हैं। अब विपक्ष ने नकल करते हुए राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर एक बेरौब चेहरे को आगे किया है। नीतीश ने विपक्ष की हां में हां मिलाने के बजाय बयान जारी करके विपक्ष को बेनकाब कर दिया कि इन लोगों ने हारने के लिए बिहार की बेटी को आगे कर दिया है। ट्विटर पर पहले से ही यह चर्चा का विषय बना हुआ है कि मीरा कुमार ने अवैध रूप से दो बंगलों को हथियाया हुआ है। इसके कारण उनकी उम्मीदवारी पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। ये आरोप सत्य हों या गलत, लेकिन इस समय रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी की व्याख्या इस रूप में की जा रही है कि उनके रूप में जातिगत कार्ड खेला गया है। इसके विपरीत उनके पास व्यापक अनुभव और क्षमताएं हैं, जिसके आधार पर वह अपनी पार्टी में उम्मीदवारी के लिए दावा कर सकते हैं। अब भी यह आशा बची हुई है कि राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों की जाति के बजाय योग्यता पर ही ध्यान केंद्रित किया जाएगा। यह तथ्य इस बात से इतर है कि मोदी के नेतृत्व वाले गठबंधन में इस चुनाव में एक स्पष्ट बढ़त हासिल कर ली है।

बस स्टैंड

पहला यात्रीः यदि कोई विधायक किसी स्कूल को उद्घाटन करता है, तो अगले ही दिन कोई मंत्री उसी स्कूल का उद्घाटन फिर से कर देता है। आखिर रिबन काटने की यह कैसी होड़ मची हुई है?

दूसरा यात्री : यहां तक कि स्वयं मुख्यमंत्री भी बाद में उसी स्कूल का उद्घाटन कर सकते हैं। हिमाचल में तो अब एक ही चीज का बार-बार उद्घाटन करने की परंपरा सी बन चुकी है, क्योंकि राजेनता मौज-मस्ती पसंद करते हैं।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com

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