यज्ञेन यज्ञमयजंत देवाः

By: Jun 24th, 2017 12:05 am

विचार एवं योजनाएं ऋषियों की, प्रभाव राजसत्ता का, तथा सक्रिय सहयोग जन-सामान्य का होता था, तो यज्ञ भी श्रेष्ठफल देने वाले होते थे…

साधना से व्यक्तित्व, संस्कारों से परिवार तथा पर्वों और यज्ञों से समाज और राष्ट्र का स्तर ऊंचा बनाने की प्रक्रिया, हजारों वर्षो से आजमाई गई विकास की एक प्रामाणिक प्रक्रिया है। प्राचीन भारत की महानता का श्रेय हमारे धर्मतंत्र को जाता है। भविष्य में भी, विश्व का आध्यात्मिक नेतृत्व पुनः भारत ही करेगा। यह भी एक सुनिश्चित् तथ्य है, किंतु इसके लिए वर्तमान समस्याओं का स्थायी समाधान करते हुए, उज्ज्वल भविष्य की ओर ले जाने वाली, उस यज्ञीय प्रक्रिया को हमें पुनः चलाना होगा।  विचार एवं योजनाएं ऋषियों की, प्रभाव राजसत्ता का, तथा सक्रिय सहयोग जन-सामान्य का होता था। तो यज्ञ भी श्रेष्ठफल देने वाले होते थे। इसके लिए यज्ञों से पूर्व लोगों में जागृति, श्रद्धा तथा श्रेष्ठ संकल्प उभारने के लिये विशेष अभियान चलता था। जिसे प्रयाज कहते थे। ‘अग्निहोत्र’ यज्ञ का दूसरा महत्त्वपूर्ण कर्मकांड था, जिसके प्रभाव से लोग खुशी- खुशी तन-मन का सहयोग निर्धारित उद्देश्य के लिए करते थे। इसे ही याज कहा जाता था। यज्ञ का तीसरा चरण अनुयाज के रूप में जाना जाता था। इन्हीं के माध्यम से देवपूजन, दान और संगतिकरण प्रक्रिया पूर्ण हो पाती थी। जनता की शुभेच्छा समय,श्रम व धनदान से चमत्कारी परिणाम देखने को मिलते थे। समस्याएं आज भी कम नहीं ंहैं। अज्ञान और उदासीनता ही आज अधिकांश समस्याओं के लिए कारण है। कुंडीय यज्ञ, कई पारियों में चलते हैं। श्रद्घालुजन अंत तक बैठ नहीं पाते, जिससे उन्हें यज्ञीय ऊर्जा का पूरा लाभ नहीं मिल पाता। दीपयज्ञों में मंत्रों को कम करके, सूत्र संकल्पों की पद्घति पुनः लाई गई है। जिन्हें परिजन दोहराते हैं, तो अपेक्षाकृत अधिक प्रभाव पड़ता है। यज्ञीय वातावरण एवं प्रेरणाओं के प्रभाव से, व्यक्ति के भीतर निर्दिष्ट समस्याओं के समाधान हेतु, स्वतः भी कुछ कर गुजरने की उमंग और उत्साह पैदा होता है। इसे यज्ञ की सफलता ही माना जाए। यदि यज्ञ आयोजक टोलियां, देवपूजन व दान की प्रक्रिया के साथ-साथ संगतिकरण की प्रक्रिया भी ढंग से चला सकें, तो इन यज्ञों से हर समस्या का समाधान संभव हो सकता है। इन दिनों हिमालय स्थित ऋषि सत्ताएं देवसंस्कृति की पुनर्स्थापना के लिए स्थूल और सूक्ष्म जगत में तीव्र हलचल मचाए हुए हैं। इन दिनों हर व्यक्ति और हर संगठन आत्म अवलोकन और आत्म समीक्षा के दौर से गुजर रहा है और सच्चाई तो यही है कि ईश्वरीय सत्ता परित्राणाय  साधुनाम और विनाशाय च दुष्कृताम का अपना आश्वासन पूर्ण करती दिख रही है। इसके  लिए विशाल जनसागर का मंथन हो रहा है। एक ओर मानव समाज को आसुरी प्रवृत्तियां भोगों की ओर आकर्षित कर रही हैं तो दूसरी ओर अंतःकरण में बैठा दैवी भाव उसे त्याग एवं सेवा की प्रेरणा भी दे जाता है। पूर्व में पर्वों के आयोजन के अवसर पर कथाएं कहीं जाती थी, यजमानों को स्वकर्त्तव्य का बोध करा कर, उनसे संकल्प कराया जाता था।

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