राष्ट्रपति पर विपक्षी सियासत क्यों?

By: Jun 19th, 2017 12:05 am

भारतीय गणतंत्र में राष्ट्रपति का पद, हालांकि सुशोभित माना जाता है, लेकिन वह देश का प्रथम नागरिक, सेनाओं का सुप्रीम कमांडर, सर्वोच्च न्यायालय का भी समीक्षक, संसद और संविधान का सर्वोच्च संरक्षक होता है। यूं कहें कि देश की सत्ता और संसद ‘राष्ट्रपति के नाम पर’ ही कार्य करती हैं। भारत में राष्ट्रपति पद की परंपरा कमोबेश सर्वसम्मत रही है। डा. राजेंद्र प्रसाद, डा. राधाकृष्णन, डा. जाकिर हुसैन, नीलम संजीवा रेड्डी और एपीजे अब्दुल कलाम सरीखे राष्ट्रपति आम सहमति से चुने गए थे, लेकिन इस संदर्भ में सियासत ने भी यहां तक खेल रचा था कि वीवी गिरि निर्दलीय उम्मीदवार होने के बावजूद चुनाव जीत गए और राष्ट्रपति बने। वह कांग्रेस के पुराने नेताओं और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच की सियासत का ही नतीजा था। उसके बाद डा. कलाम को छोड़ कर सभी राष्ट्रपति उम्मीदवारों को चुनाव लड़कर राष्ट्रपति भवन तक पहुंचना पड़ा। हालांकि यह हमारे संविधान की हदबंदियां हैं या निर्वाचित राष्ट्रपति का न्यायिक चरित्र है अथवा सर्वोच्चता को पवित्र रखने का दायित्व है, हमारे राष्ट्रपति क्षुद्र राजनीति में नहीं उलझे हैं। अब एक बार फिर राष्ट्रपति चुनाव की गहमागहमी बढ़ गई है। हालांकि मोदी सरकार और सत्तारूढ़ एनडीए के पक्ष में इतना समर्थन है कि वे अपना राष्ट्रपति आराम से चुनवा सकते हैं। उन्हें तेलंगाना राष्ट्र समिति,वाईएसआर कांग्रेस और तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के दोनों धड़ों का समर्थन घोषित रूप से हासिल है। फिर भी एनडीए की तरफ  से गृहमंत्री राजनाथ सिंह और सूचना मंत्री वेंकैया नायडू ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और कुछ कांग्रेस नेताओं के साथ बैठक की। दोनों मंत्रियों ने लालकृष्ण आडवाणी और डा. मुरली मनोहर जोशी से भी बातचीत की। विपक्ष ने न तो कोई उम्मीदवार तय किया है और न ही अभी कोई साझा रणनीति बनाई है। तो फिर विपक्षी एकता के नाम पर बैठकों के मायने क्या हैं? सत्तारूढ़ पक्ष- विपक्ष से विमर्श इसलिए करना चाह रहा है,क्योंकि प्रधानमंत्री ऐसा करते रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी की सोच भी एक सर्वसम्मत राष्ट्रपति बनाने की है। अलबत्ता एनडीए के पक्ष में निर्वाचक मंडल के 5,37,614 वोट हैं और विपक्ष के पास 4 लाख से कुछ ज्यादा ही वोट हैं। फासला इतना है कि विपक्ष अपना राष्ट्रपति नहीं चुनवा सकता। फिर भी सियासत जारी है। यही नहीं, विपक्ष की कुछ शर्तें भी सामने आई हैं। मसलन-वे आरएसएस और भाजपा के घुटे हुए और हिंदूवादी नेताओं को समर्थन नहीं देंगे। नतीजतन विपक्ष अपना उम्मीदवार उतारेगा, बेशक वह ‘प्रतीकात्मक’ ही होगा। लिहाजा सोनिया गांधी की शर्त है कि पहले एनडीए के उम्मीदवार का नाम बताया जाए। एनडीए तो संभवतः 19 जून की बैठक में उम्मीदवार तय कर लेगा और 23 जून तक उसकी सार्वजनिक घोषणा भी की जा सकती है, लेकिन मंत्री किसी विरोध के लिए नहीं, एक सर्वसम्मत निर्णय तय करने को गए थे। दरअसल कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति उम्मीदवार पर चर्चा ही शुरू नहीं की है, बेशक वह सोनिया गांधी का लंच आयोजन हो अथवा चेन्नई में बुजुर्ग द्रमुक नेता करुणानिधि के जन्मदिन पर विपक्षी नेताओं का जमावड़ा हो, कोई भी ठोस विमर्श सामने नहीं आया है। हालांकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी का मानना है कि यदि एनडीए ने सुषमा स्वराज को उम्मीदवार बनाया, तो उनकी पार्टी समर्थन करेगी। दूसरी ओर, वामपंथी दल महात्मा गांधी के पौत्र गोपाल दास गांधी को उम्मीदवार बनाकर इस चुनावी लड़ाई को ‘गांधी बनाम गोडसे’ का रंग देना चाहते हैं। तीसरी ओर, शरद पवार की पार्टी एनसीपी महाराष्ट्र के किसी नेता को समर्थन देना चाहती है। यानी विपक्ष के भीतर ही सहमति नहीं है, तो विपक्ष की इन कवायदों के मायने क्या हैं? क्या सोनिया गांधी ने नीतीश कुमार, सीताराम येचुरी, ममता बनर्जी आदि नेताओं से इस मुद्दे पर बातचीत की है? यदि विपक्षी एकता की कवायदें 2019 के आम चुनाव के मद्देनजर हैं, तो वह तारीख और समय अभी बहुत दूर है। तब आम चुनावों का मुद्दा क्या होगा,कौन-सा दल किस पक्ष में होगा,कौन जेल में होगा और कौन सरकार में रह पाएगा,ये सवाल ही 2019 के लोकसभा चुनाव की दिशा और दशा तय करेंगे। राष्ट्रपति उम्मीदवार को लेकर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों में मतैक्य नहीं है, तो महागठबंधन क्या खाक तैयार होगा? कमोबेश प्रयास तो करें कि विपक्षी ताकतें प्रधानमंत्री मोदी और उनके एनडीए के खिलाफ ‘लामबंद’ होना चाहते हैं। इधर, राजनीति को छोड़कर कुछ गैर-राजनीतिक नाम भी सामने आए हैं। उनमें कृषि विज्ञानी एमएस स्वामीनाथन, मेट्रो रेल के जन्मदाता श्रीधरन, प्रख्यात परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोडकर, इन्फोसिस के प्रथम चेयरमैन नारायणमूर्ति के नाम शामिल हैं, लेकिन अभी यह तय नहीं है कि सत्तारूढ़ पक्ष की इन नामों पर सोच क्या है? यथार्थ यह है कि भाजपा के पक्ष में ऐसा अवसर पहली बार आया है कि वह अपने उम्मीदवार को देश का राष्ट्रपति बना सकती है। विपक्ष की व्याख्याएं जो भी हों, लेकिन आरएसएस और भाजपा कोई सजायाफ्ता संगठन नहीं हैं और हिंदूवादी होना कोई पाप नहीं है। यदि चुनाव की दृष्टि से देखें, तो अन्नाद्रमुक के धड़ों, वाईएसआर कांग्रेस और तेलंगाना राष्ट्र समिति आदि दलों के समर्थन के बाद सत्तारूढ पक्ष को 5.70 लाख से अधिक वोट पड़ सकते हैं। राष्ट्रपति उम्मीदवार की जीत के लिए 5,49,452 वोटों की ही दरकार है। अब गेंद विपक्ष के पाले में है कि वह सिर्फ  राजनीति करना चाहता है या सर्वसम्मत राष्ट्रपति की परंपरा को कायम रखने में अपना योगदान भी देना चाहता है!

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