शिमला की चुनावी दूरबीन

By: Jun 13th, 2017 12:05 am

चुनावी हाजिरी में हिमाचल भाजपा का संकल्प हर दिन एक नया आगाज है और इसी परिप्रेक्ष्य में शिमला नगर निगम चुनाव अब सियासी तूफान का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बन रहा है। शिमला के मुद्दों के मायने समझते हुए भाजपा ने जो चुनावी चित्रण किया है, उससे हटकर उम्मीदवारों के अपने चरित्र का चित्रण भी रहेगा। नागरिक जीवन की जरूरतों को भांपने के लिए चुनावी दूरबीन की मदद किस तरह कामयाब होगी, इसका एक कयास भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में किया है। कमोबेश हर वर्ग के लिए कोई न कोई संकल्प है, तो इस दस्तूर की कसमें भी हैं। हम चुनाव के बहाने अपने इर्द-गिर्द खड़े राजनीतिक सोच का पैमाना देख सकते हैं। इस दृष्टि से भाजपा का दस्तावेज आशा जगाता है कि किस तरह एक चयन कितना बड़ा अंतर ला सकता है। हालांकि इससे पूर्व धर्मशाला नगर निगम चुनाव के जरिए अपने संकल्प की वकालत भाजपा नहीं कर पाई थी, फिर भी अब सियासी चुग्गा मजबूत माना जाएगा। यहां शिमला का एक मॉडल दिखाई दे रहा है और यह राजधानी में मीन मेख निकालने का एक स्पष्ट राजनीतिक संकेत है। यह इसलिए भी कि सबसे पहले उम्मीदवार घोषित करते हुए भाजपा ने शहर के मानसिक पटल पर खुद को अंकित किया। यहां एक जागरूक समाज की बेहतरी का प्रश्न है और शिमला के अस्तित्व में ‘अच्छे दिन’ डालने का भाजपाई अंदाज भी। परियोजनाओं के स्तर पर शिमला इतना बड़ा हो जाएगा कि केंद्र सरकार को खबर होगी या यह स्थानीय स्तर की करवटें हैं, जो अपना आशियाना ढूंढ रही हैं। जाहिर है आगामी सत्ता की प्रतीक्षा में भाजपा का अंदाज शाही है। यह दीगर है कि शिमला मात्र एक चुनाव से न तो अपने इतिहास को बदल देगा और न ही पर्वतीय विषमताओं का त्वरित उपचार कर पाएगा, बल्कि भाजपा के सीधे आक्रमण के बीच कुछ सरल विकल्प चुनावी युद्ध का मंजर बदल सकते हैं। उम्मीदवारों के चयन और राजनीतिक समीकरणों के बीच पार्टी के उदय में, ऐसी कशमकश बनी रहेगी जो सियासी मापदंड से कहीं ऊपर है। स्थानीय निकायों में विशुद्ध राजनीति से तो शायद कुछ मिलेगा, लेकिन विश्वसनीयता के आधार पर जन समर्थन अवश्य ही स्पष्ट होगा। यह हर वार्ड का एक अलग पैगाम है और सुशासन का प्रत्येक कदम यहां तय होगा। मात्र विकास मॉडल पर चुनावी जंग असंभव है, इसलिए विफलताओं के फटे हुए ढोल भी खबर कर रहे हैं। स्वच्छ पेयजल की जरूरतों में दबा शिमला कोरे आश्वासन तो सुनता रहा है, लेकिन इस बार चुनावों के जरिए जल देवताओं का इंतजार कर रहा है। जहां तक बंदर-लंगूरों से शिमला को बचाने का दावा है, जब तक केंद्रीय मंत्रिमंडल में मेनका गांधी विराजमान हैं, कुछ भी संभव नहीं। अगर भाजपा बंदरों के खिलाफ अपने आश्वासन को पुष्ट करना चाहती है, तो एक बार मेनका गांधी को शिमला में प्रकट करके चुनाव की इस रिक्ति को भर दे। बेशक स्मार्ट सिटी के मसले से जुड़ी संवेदना और संभावना, भाजपा को कद्दावर बना सकती है। भले ही यह मुद्दा आमने-सामने रहकर भाजपा और कांग्रेस के बीच बड़ा निर्णय लेने में मतदाता की मदद करे, लेकिन फायदे में रहने की यह चुनावी चिंगारी गरमाहट तो लाएगी ही। फील्ड में सबसे पहले आकर संकल्प की जो घंटियां भाजपा ने बजाई हैं, उसका अपना  प्रभाव और मिन्नतें गिनी जाएंगी। ऐसे में नानुकर के साथ कांग्रेसी उम्मीदवारी पर लगे दावों को अपनी जवाबदेही भी तो साबित करनी है। कोई यह नहीं मानेगा कि नगर निगम के उच्च पदों पर लाल टीका कितने गहरे से लगा, लेकिन भाजपा का केसरिया रंग, कांग्रेस के रंग में भंग डालने का ही काम करेगा। सीधे टकराव में माकपा का असर कितना घटता है या व्यक्तिगत प्रभाव से उम्मीदवार कितने सशक्त होते हैं, इस पर टिका रहेगा सारा हिसाब-किताब। अप्रत्यक्ष चुनावों में नगर निगम पर सीधे असर के संकल्प, फिलहाल एकतरफा नहीं हो सकते। अपने कई भंवरों में फंसे शिमला की वास्तविक राजनीतिक पहचान का मसला अवश्य ही मतदाताओं को झुंड बनाकर चिन्हित कर रहा है।

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