अनेक चिताओं के बीच

By: Jul 21st, 2017 12:02 am

अनेक चिताओं के बीच अचानक हिमाचल अपनी चिंताओं से दहकने लगा। आक्रोश के टीले पर धधकते सवाल का आंचल कोटखाई से समूचे हिमाचल में मां के रिश्ते और बिटिया की सुरक्षा की पनाह मांगता है, तो उस मां की वेदना भी समझनी होगी, जो धर्मशाला में अपने बेटे मेजर शिखर थापा के शव से लिपट कर पूछती रही कि आखिर इसे अनुशासनहीन फौजी ने क्यों मारा। सीमा पर ऐसा असंतोष क्योंकि युवा फौजी अपने मानसिक उद्वेग को नियंत्रित नहीं कर पा रहे। काश समाज का कोई एक हिस्सा पूछ पाता कि सरहद पर बिछ रही हिमाचली लाशों को समेटने के लिए कितनी माताओं का आंचल भीगता होगा। बेशक हिमाचल के चारों सांसद गृह मंत्री से मिल कर राज्य की अशांति का हवाला देते रहे, लेकिन तस्वीर को पलट कर देखें तो देश के सीने में फैली अशांति और जम्मू-कश्मीर के बार्डर पर खूनी लिखावट में शोक व शिकवा किससे मुखातिब है। पुनः सुबाथू और नादौन के दो सैनिकों के शव हिमाचली शहादतों में इजाफा करके लौटे, तो मातम की धुन में गूंजता सन्नाटा भी सिहर उठा। यह वही खून है जो हर वक्त खौलता है, लेकिन हमारा अपना विरोध अगर सड़कों पर जलने लगा तो दोषियों की कतार में चुनावी माहौल छिपा नहीं रहेगा। दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरण की पीड़ा और समाज की लज्जा इतनी भी फरेबी नहीं कि हम हर आंच से सियासत चुनें और अगर यह सही नहीं है, तो किन्नौर से सोलन जा रही बस में सवार यमराज को हम क्यों नहीं देख पाए। एक साथ उनतीस लाशों के बीच फिर हिमाचल। चारों तरफ चिताओं के बीच हिमाचल। कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी अगर अपराध है, तो हिमाचल के पुलिस थाने पर पथराव को हमें सही परिप्रेक्ष्य में देखने की मनाही होनी चाहिए और यह जिम्मेदारी सत्ता-विपक्ष की एक समान है। सामाजिक कुरूपता के बीच आपराधिक प्रवृत्तियों को रोकने के लिए समूचे सियासी आचरण को भी गौर करना होगा। क्यों एक अलग सा हिमाचल चारों ओर नजर आ रहा है और प्रगति के बीच लाभार्थियों के संपर्क क्यों अधिकतर सियासी होते हैं। जरा गौर करें कि चुनावी महत्त्वाकांक्षा में प्रभावशाली बनकर उतरने वालों में कितने लोग माफिया सरीखे हैं या सामाजिक वजूद से हट कर पैसे के दम पर अवतार बनने को आतुर हैं। कोटखाई की बिटिया मौत के पालने से जो पूछ रही है, उसके दोष में पूरे परिदृश्य की तस्वीर छिपी है। बहरहाल जनता ने सरकार को यह बता दिया कि कानून की पैरवी अगर मुकम्मल नहीं होगी, तो आंखों से भी अंगारे निकलेंगे। कुछ तो देर हुई कानून को आने में, इसलिए लोग घर से उठकर पहुंच गए तेरे आशियाने में। बावजूद इसके यह आग रोकनी होगी और इस लिहाज से हिमाचल को आत्मनिरीक्षण करना होगा। वे रिश्ते-नाते खंगालने होंगे, जहां प्रदेश पर सियासी बादशाहत के फूल खिलते हैं। यहां निरंकुश होता हिमाचल आम नागरिक की आशाएं कुचल रहा है और जब संवेदना पिघल कर खौलती है, तो हर चौक कोटखाई बन सकता है। यही निरंकुश हिमाचल किन्नौर से बस को अपनी रफ्तार से दौड़ाते-दौड़ाते उनतीस यात्रियों को मौत के घाट उतार देता है। यह अपराध पुनः व्यवस्था की खामियां बटोरता है और हर दुर्घटना के बाद सामूहिक चिताओं में जिम्मेदारी को धुआं होते देखता है। हमारे आसपास की अनेक चिताओं में हम खुद को कोस सकते हैं, लेकिन असंवेदनशील नहीं हो सकते। बसें अगर ताबूत बनकर दौड़ेंगी, अस्पताल की सीढि़यां श्मशानघाट से जुड़ेंगी या नशे के तस्कर हमारे खून का सौदा करेंगे, तो हर चिता में कसूरवार खोजना होगा। जीवन से खेलती व्यवस्था या लापरवाह होती व्यवस्था के खिलाफ हिमाचल की जनता अगर हल्ला बोल रही है, तो हिमाचल के सुन्न पड़े हिस्से को उठकर संभलना होगा, वरना भीड़ के भीतर असामाजिक तत्त्व हमारे सामाजिक ताने-बाने को छीन लेंगे।

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