चातुर्मास का प्रारंभ है देवशयनी एकादशी

By: Jul 1st, 2017 12:10 am

इस व्रत का संकल्प लेने वाले भक्तों को अपने चित्त, इंद्रियों, आहार और व्यवहार पर संयम रखना होता है। एकादशी व्रत का उपवास व्यक्ति को अर्थ-काम से ऊपर उठकर मोक्ष और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। देवशयनी एकादशी से ही   आत्मसंयम और आत्मपरिष्कार के चार महीनों का कालखंड, जिन्हें चातुर्मास कहा जाता है, प्रारंभ होता है …

Aasthaविवाह-शादी इत्यादि शुभ कार्यों के लिहाज से तो देवशयनी एकादशी को महत्त्वपूर्ण माना ही जाता है, चातुर्मास के साधनाकाल के लिहाज से भी देवशयनी एकादशी को आधारभूत तिथि माना जाता है। आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस वर्ष देवशयनी एकादशी 4 जुलाई 2017 के दिन पड़ रही है। इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ भी माना जाता है। देवशयनी एकादशी को हरिशयनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। सभी उपवासों में देवशयनी एकादशी व्रत श्रेष्ठतम् कहा गया है। इस व्रत को करने से भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं तथा सभी पापों का नाश होता है। इस दिन भगवान विष्णु की विशेष पूजा अर्चना करने का महत्त्व होता है क्योंकि इसी रात्रि से भगवान का शयनकाल आरंभ हो जाता है, जिसे चातुर्मास या चौमासा का प्रारंभ भी कहते हैं।

हरिशयनी एकादशी कामहत्त्व

देवशयनी या हरिशयनी एकादशी के विषय में प्राचीन ग्रंथों में विस्तार पूर्वक उल्लेख मिलता है। पुराणों के अनुसार इस दिन से भगवान श्री विष्णु चार मास की अवधि तक पाताल लोक में निवास करते है।  चार माह के अतंराल बाद सूर्य के तुला राशि में प्रवेश करने पर विष्णु भगवान का शयन समाप्त होता है तथा इस दिन को देवोत्थानी एकादशी का दिन होता है। इन चार माहों में भगवान श्री विष्णु क्षीर सागर की अनंत शय्या पर शयन करते है। इसलिए इस चार माह की अवधि में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है। शादी-विवाह, गृहप्रवेश जैसे शुभ कार्य इस अवधि में नहीं होते।

देवशयनी एकादशी पूजा विधि 

देवशयनी एकादशी व्रत की शुरुआत दशमी तिथि की रात्रि से ही हो जाती है। दशमी तिथि की रात्रि के भोजन में नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। अगले दिन प्रातःकाल उठकर दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर व्रत के लिए संकल्प करना चाहिए। भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर आसीन कर उनका षोड्शोपचार सहित पूजन करना चाहिए। पंचामृत से स्नान करवाकर, तत्पश्चात भगवान की धूप, दीप, पुष्प आदि से पूजा करनी चाहिए। भगवान को तांबूल, पुंगीफल अर्पित करने के बाद मंत्र द्वारा उनकी स्तुति करनी चाहिए।

देवशयनी एकादशी व्रत कथा

पूर्वकाल में सूर्यवंशी मांधाता नाम के एक परम प्रतापी राजा का शासन था।  वह सत्यवादी, महान,  चक्रवर्ती था। वह अपनी प्रजा का पुत्र समान ध्यान रखता है। उसके राज्य में कभी भी अकाल अथवा बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं बाधा नहीं पहुंचाती थी। एक बार राजा के राज्य में अकाल पड़ गया। दुःखी प्रजा त्राहि-त्राहि करने लगी। सभी राजा के पास जाकर प्रार्थना करने लगे कि वह इस विपत्ति से बाहर निकालने का कुछ उपाय करें। राजा मांधाता इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन ढूंढने के उद्देश्य से सैनिकों के साथ जंगल की ओर चल दिए। घूमते-घूमते वे ब्रह्मा के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंच गए। राजा ने उनके सम्मुख प्रणाम कर अपनी समस्या का कुछ समाधान बताने के लिए निवेदन किया। इस पर ऋषि उन्हें एकादशी व्रत करने को कहते हैं। ऋषि के कथन अनुसार राज एकादशी व्रत का पालन करते हैं ओर उन्हें अपने संकट से मुक्ति प्राप्त होती है। इस व्रत को करने से समस्त रखते वाले व्यक्ति को अपने चित्त, इंद्रियों, आहार और व्यवहार पर संयम रखना होता है। एकादशी व्रत का उपवास व्यक्ति को अर्थ-काम से ऊपर उठकर मोक्ष और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। देवशयनी एकादशी से ही  चतुर्मास आत्मसंयम और आत्मपरिष्कार के चार महीनों के कालखंड, जिन्हें चातुर्मास भी कहा जाता है, प्रारंभ होता है।  एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारण कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गई हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही होता है। द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है। एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्याह्नन के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। कुछ कारणों की वजह से अगर कोई प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं है तो उसे मध्याह्न के बाद पारण करना चाहिए। कभी कभी एकादशी व्रत लगातार दो दिनों के लिए हो जाता है। जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब स्मार्त-परिवारजनों को पहले दिन एकादशी व्रत करना चाहिए। दूसरे दिन वाली एकादशी को दूजी एकादशी कहते हैं। संन्यासियों, विधवाओं और मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक श्रद्धालुओं को दूजी एकादशी के दिन व्रत करना चाहिए। एकादशी का व्रत भक्तों की सभी इच्छाओं को पूरा करता है। इस व्रत के प्रभाव से शाप-ताप नष्ट होते हैं और व्यक्ति  लौकिक-आध्यात्मिक उन्नति करता है।


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