दिल्ली आदेश का झटका

By: Jul 4th, 2017 12:02 am

एक बार फिर राहत के बदले आहत हुए हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के सामने अदालती फरमान और सामने भाजपा की आलोचना का पुख्ता होता सबूत। ईडी और सीबीआई जांच दस्तावेजों सहित जो मामला दिल्ली हाई कोर्ट में मुख्यमंत्री को कठघरे में खड़ा कर चुका है, उसकी रगड़ से बचाव का पक्ष भी हार गया। दलीलें और अपीलें अगर अदालती पैरवी में बचाव का विकल्प नहीं ढूंढ पाईं, तो चुनावी माहौल का युद्धनाद और खतरनाक तरीके से हिमाचल के सत्तारूढ़ दल को परेशान करेगा। सबसे कठिन दौर की परीक्षा में मुख्यमंत्री का सियासी वजूद और लांछित आचरण को बचाने की कशमकश से सराबोर राजनीति के दुखद पल। अब सीधे-सीधे मामले में ईडी और सीबीआई के लिए कार्रवाई में बढ़त के कारण, तफतीश तथा तर्क नग्न सत्य को बेटोरने की कोशिश करेंगे। जाहिर तौर पर मनी लांड्रिंग मामले की हर परत से निकलती अनिश्चितता से विपक्ष के कारतूस भारी हो जाते हैं, अतः दिल्ली हाई कोर्ट का झटका एक सदमे के मानिंद सत्ता के रुख को भयभीत कर रहा है। विपक्ष अपनी आलोचना के जिस मुकाम पर मुख्यमंत्री को टारगेट करना चाहता है, उस लिहाज से अदालती फैसला अहम भूमिका निभाएगा। ऐसे में समझना यह होगा कि कांग्रेस सरकार का सारा कार्यकाल इसी बिंदु पर आकर कंगाल हो जाएगा या विकास के घोषणा पत्र बर्बाद हो जाएंगे। अदालती लड़ाई के पेंच यूं तो सियासत के साथ चलते रहते हैं, लेकिन यहां मामला अब गंभीरता से देखा जा रहा है। ऐसे में हिमाचल जैसे राज्य का राजनीतिक आचरण दागदार होकर आगामी चुनाव की चुगली करे, तो मतदाता के पास विकल्प कम ही रहेंगे। भाजपा के प्रचार में मुख्यमंत्री का मामला सबसे ऊपर है और इसका लगातार जिक्र हो रहा है। प्रधानमंत्री से केंद्र के हर मंत्री तक हिमाचल में चुनावी प्रचार अब इसी विषय पर नैतिकता का विषय खड़ा कर रहा है। देखना यह है कि नैतिकता की राह पर हिमाचल की राजनीति किस तरह पढ़ी जाती है, लेकिन लांछनों की इबारत में इससे पहले पंडित सुखराम का इतिहास भी समझना होगा। दूरसंचार घोटाले और सीबीआई छापेमारी से संदिग्ध होने के बावजूद पंडित सुखराम अगर हिमाचल विकास कांग्रेस का रथ चला पाए, तो क्या उस दौर में नैतिकता हारी या राजनीतिक संभावना जीती। बेशक इस बार भी वीरभद्र जांच प्रकरण ने नैतिकता के हिसाब से हिमाचली राजनीति में नैतिकता व संभावना के बीच मुकाबला शुरू कर दिया है। नैतिकता की डगर पर भाजपा लाभकारी स्थिति में है, लेकिन संभावना की बागडोर में कांग्रेसी अपनी सलामती की जंग में बनी हुई है। इसीलिए कांग्रेस आलाकमान अपने मुख्यमंत्री का साथ देकर संभावना बटोर  रही है। आम मतदाता के लिए यह कठोर प्रश्न न होकर भी इसलिए ज्वलंत बना हुआ है, क्योंकि मामले की रगड़ाई में प्रदेश का अभिमत भी कहीं न कहीं जकड़ा हुआ है। विषय की सौगात में राजनीतिक ध्येय भले ही भाजपा की आशा को दोगुना कर दे, लेकिन सीबीआई व ईडी जांच का चेहरा हुकमरान की तरह न बन जाए, यह अंदेशा भी रहता है। अंततः छह बार के मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता की अदालती चुनौतियों में पार्टी का दांव भी लगा है। बहरहाल दिल्ली कोर्ट के फैसले ने कई आशंकाओं और समीकरणों की जमीन भी फैला दी है। हिमाचल की राजनीति में पहली बार इस तरह की परिस्थितियों के बीच एक ओर सरकार को आगामी चुनाव के लायक बने रहना है तो दूसरी ओर विपक्ष को इसी तापमान में राजनीतिक धरती को सुर्ख बनाए रखना है। जो भी हो, यह तो तय है कि इस बार चुनावी मुद्दों की तैयारी में, भाजपा का साथ देने के लिए मुख्यमंत्री मनी लांड्रिंग मामला भी चल रहा है। पिछले काफी समय से हिमाचली वृत्तांत में बनती-बिगड़ती सुर्खियां अगर सीबीआई व ईडी जांच में, मुख्यमंत्री के पद को हाजिर कर रही हैं, तो इस मसाले में विपक्षी भाजपा के आरोहण की उम्मीदें भी नत्थी हैं। संघर्ष के दौर में कांग्रेस व भाजपा के बीच इतिहास का फैसला तो अंततः जनता को ही करना है और वह हर प्रकरण में अपनी नैतिकता जोड़ लेती है, भले ही सियासत इसे वरीयता दे या न दे।


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