यथार्थ गीता

By: Jul 1st, 2017 12:05 am

स्वामी अड़गड़ानंद जी

विश्व हिंदू परिषद के पूर्व अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष माननीय अशोक सिंघल जी ने आदिशास्त्र के रूप में इसे पाकर विचार गोष्ठियों में इस पर गहन मनन-चिंतन कराया, विचार-विमर्श होता रहा किंतु कुछ ही दिनों में यह व्याख्या सर्वग्राह्य होती गई और न केवल हिंदू परिषद बल्कि काशी विद्वत परिषद, विश्व ब्राह्मण महासभा, विश्व धर्म संसद तथा माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने एक स्वर से कहा कि गीता राष्ट्रीय धर्मशास्त्र है, अंतरराष्ट्रीय है, मानव दर्शन है और उसी का यथावत भाष्य ‘यथार्थ गीता’ है। अब जबकि गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने का प्रस्ताव भारत सरकार के समक्ष किया गया तो वह कहती है कौन सी गीता ? सच्चाई तो यह है कि भारतीयों ने भारत में ही जन्मी आदिशास्त्र गीता को शास्त्र के तौर पर स्वीकारा ही कब था? दो-अढ़ाई हजार वर्षों से भारत के पास धर्मशास्त्र नहीं है। कृत्रिम धर्मशास्त्र चलाया जाता था जिनका नाम था स्मृतियां, जो तत्कालीन स्टेटों के कानूनों का संकलन हुआ करती थीं। भारत भर में सौ-डेढ़ सौ स्मृतियां रही हैं जिनमें से 10-20 भारत के छोटे-छोटे राज्यों में आजादी के पूर्व तक प्रचलन में थीं। समाज को इन्हें देखने का अधिकार नहीं था। यह गोपनीय ढंग से चलाई गई एक व्यवस्था थी जिसे राजकीय दंड के भय से, धर्म-धर्म कहकर बलात जनता पर थोपा गया कि समाज के चार वर्णों की रचना भगवान ने की है जिसमें बहुसंख्यक शूद्र सारहीन अन्न खाए, पेड़ के नीचे रहे। भोजन, वस्त्र, मकान, शिक्षा, संपति इत्यादि से वंचित कर उनसे बलपूर्वक सेवा काम लिया जाए। कदाचित कोई इस व्यवस्था का विद्रोह कर दे तो समाज ने कहा कि शस्त्र तो केवल क्षत्रिय उठा सकता है। वैश्य व्यापार करे, ब्राह्मण न्याय करे। राजा इस व्यवस्था को बनाए रखे तो लाख अश्वमेध यज्ञ करने का फल मिलेगा, अन्यथा रौरव नरक में जाएंगे। इस प्रकार मानव प्रजाति को ऊंच-नीच की भावना में बांट डाला। कहना न होगा कि धर्मशास्त्र गीता की गलत संदर्भों में इन्हीं व्याख्याओं के कारण जगतगुरु भारत सदियों का गुलाम रहा। कहीं लोग वास्तविक धर्म को न जान लें इसलिए इन धर्माचार्यों ने प्रचार किया कि गीता घरों में रखो ही मत, नहीं तो लड़का संन्यासी हो जाएगा। आगे उसका वंश नहीं चलेगा, पिंडोदक क्रिया का लोप हो जाएगा, पितर लोग भोजन नहीं पाएंगे।। इसी प्रकार हिंदुओं को गौरवपूर्ण इतिहास ग्रंथ महाभारत जिसमें आदिकाल से पूर्वजों का कीर्तिमान अंकित है, उसके लिए कहा गया, इसे सुनो ही मत अन्यथा महाभारत जैसा विप्लव हो जाएगा। इसी क्रम में देववाणी संस्कृत, जिससे संसार भर की भाषाएं निकली हैं, उस पर भी प्रतिबंध कि ब्राह्मण के अतिरिक्त कोई संस्कृत पढ़ ही नहीं सकता। परिणाम यह हुआ कि आज अधिकतर लोग संस्कृत समझ ही नहीं सकते। फिर भी कुछ लोगों का दुराग्रह है कि धर्मशास्त्र के रूप में गीता के 700 संस्कृत श्लोक दिए जाएं, क्षेत्रीय भाषाओं में उनका अर्थ न बताया जाए। यह उन दिनों हुआ जब संस्कृत भाषा अपने पूर्व वैभव पर थी, तो गीता का यह अर्थ निकाला गया। अब जबकि संस्कृत बहुसंख्यक लोग नहीं जानते, केवल संस्कृत में गीता देने वाले जनता को मनगढ़ंत व्याख्या देकर उन्हें सत्य से परिचित नहीं होने देना चाहते। इसलिए भाष्यसहित गीता अर्थात ‘यथार्थ गीता’ के आलोक में ही गीता के आशय को हृदयगम किया जा सकता है।


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