विचारधारा की प्रशासनिक जकड़न

By: Jul 10th, 2017 12:05 am

कुलदीप नैयर

कुलदीप नैय्यर  लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

कुलदीप नैयरसर्वाधिकारवाद और लोकतंत्र के बीच यही अंतर है। दुर्भाग्य से आज हिंदुत्व बनाम बहुलवाद के बीच संघर्ष है। व्यक्ति की निरंकुशता का स्थान अब विचारधारा की निरंकुशता लेती जा रही है। आज त्रासदी यह है कि जो लोग भारत के संघर्ष के लिए खपे, उनका कोई महत्त्व नहीं बचा और जो कभी उस मोर्चे के आसपास भी न दिखे, वे देश को संभाल रहे हैं। आज भी कई ऐसी उदारवादी आवाजें हैं, जिन्हें स्वतंत्रता संग्राम और उसका नेतृत्व करने वाले महात्मा गांधी याद हैं…

सरकारी अधिकारी आम तौर पर सेवानिवृत्ति के बाद संन्यास ले लेते हैं, लेकिन इनमें से कुछेक साहसिक लोग ही उस असहिष्णुता पर बेबाक बोल पाते हैं, जो भारतीय समाज में बढ़ रही है। अपने खुले पत्र में वे कहते हैं, ‘ऐसा प्रतीत होता है कि समाज में मजहबी असहिष्णुता बढ़ रही है, जिसका प्राथमिक निशाना मुस्लिम हैं।’ साफ तौर पर इस पत्र की भावनाओं का कहीं कोई जिक्र या चर्चा देखने को नहीं मिलते। समाज के सुर निर्धारित करने वाली भाजपा इस विषय पर कोई चर्चा न करवाकर इसे उसी तरह दफना देना चाहती है, जैसा अब तक इसके साथ होता रहा है। यह तथ्य आज भी अपनी जगह ज्यों का त्यों बरकरार है कि मुस्लिमों को उनके जायज हक नहीं मिल पाए हैं। 1.2 अरब की आबादी वाले भारत में 17 करोड़ (करीब 12 फीसदी) आबादी मुसलमानों की है। इनकी दशा को न्यायाधीश राजिंद्र सच्चर की रिपोर्ट भलीभांति जाहिर कर चुकी है। इस रिपोर्ट में पाया गया है कि देश में मुसलमानों की स्थिति दलितों से भी बदतर हो चुकी है। यह रिपोर्ट करीब दशक भर पहले की है। इसके बावजूद इसकी किसी भी सिफारिश पर अब तक अमल नहीं किया गया। यहां तक कि कांग्रेस के कार्यकाल में भी यह कार्य नहीं हो पाया। इसका यही अर्थ निकलकर सामने आता है कि भाजपा नीत एनडीए के सत्ता में आने से पहले ही मृदु हिंदुत्व ने देश में पैर पसारने शुरू कर दिए थे। उम्मीद थी कि कम से कम कांग्रेस तो इस आयोग की सिफारिशों को अमल में लाती। न्यायाधीश सच्चर कांग्रेस सरकार के उस रवैये से तंग आकर तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के पास भी गए थे। तब अपनी पीड़ा जाहिर करते हुए उन्होंने पूछा था कि इस रिपोर्ट को लेकर यदि कांग्रेस सरकार गंभीर नहीं है, तो संबंधित अध्ययन में मेरा और आयोग के अन्य सदस्यों का समय क्यों बर्बाद किया गया।

तब मनमोहन सिंह ने उस पर अपनी लाचारी व्यक्त की थी। तब उन्होंने न्यायाधीश सच्चर को बताया कि नौकरशाही इसमें अड़चनें पैदा कर रही है और मुसलमानों के लिए जो कुछ करने का वादा किया गया था, वह महज कागजों तक सीमित रहा। भाजपा के सत्ता में आने के बाद भी इस रिपोर्ट को शायद ही कोई समर्थन मिल पा रहा है। मुस्लिम अपनी शिकायत दर्ज कराने के लिए गाहे-बगाहे इस रिपोर्ट का जिक्र करते रहे हैं, लेकिन मीडिया ने इसमें कभी कोई रुचि नहीं दिखाई। यहां तक कि मीडिया का खुद हिंदुत्व की ओर झुकाव प्रतीत होता है। इस बीच बहुलवाद की आवाज सुनना मुश्किल हो चुका है। हालात इतने नाजुक दौर में पहुंच चुके हैं कि बहुलवाद की बात करने वालों ने इससे मुंह फेर लिया है और वे निजी स्वार्थों की खातिर मुस्लिम पक्षधर बनने का नाटक करते हैं। भाजपा का दर्शन प्रभावी दिखता है। स्वतंत्रता संग्राम के लिए संघर्ष करने वालों के साथ अपने संपर्क बनाने या जाति-नस्ल के आधार पर भेदभाव किए बगैर ‘सबका समान देश’ के सिद्धांत का पालन करने वाली कांग्रेस की आज कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है। अब राजवंश ही पार्टी को शासित कर रहा है और किसी दूसरे व्यक्ति के लिए इसमें कोई स्थान नहीं रह गया है। अकसर चर्चाओं में रहने वाली वर्किंग कमेटी का भी कहीं कोई वास्तविक अस्तित्व नजर नहीं आता। यहां तक कि कभी एआईसीसी या पार्टी अध्यक्ष के चुनावों के बारे में भी सुनने को नहीं मिला। यह विरासत अपने पुत्र राहुल गांधी को सौंपने का ख्वाब देखने वाली कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का भी यही प्रयास रहता है कि पार्टी में कोई आलोचक आवाज न रहे।

पार्टी के वरिष्ठ नेता कई बार खुलकर हताशा को जाहिर कर चुके हैं कि वह सोनिया गांधी पार्टी में नया नेतृत्व उभरने ही नहीं देना चाहतीं, ताकि यह सीट अपने पुत्र राहुल के लिए बचाकर रख सकें। वह अपने पुत्र मोह में इस कद्र बंधी हुई हैं कि उन्होंने अपनी बेटी प्रियंका गांधी को भी पृष्ठभमि में धकेल दिया, जिनकी जनता में अच्छी खासी स्वीकार्यता है। प्रियंका गांधी की सबसे बड़ी खूबी है कि उनमें उनकी दादी इंदिरा गांधी की झलक मिलती है। बेशक इंदिरा गांधी से जुड़े कई नकारात्मक पहलू भी हैं। उदाहरण के तौर पर पहला मामला तो आपातकाल की ज्यादतियों का ही याद आता है। उस वक्त करीब एक लाख लोगों को बिना किसी मुकदमे के जेल में डाल दिया गया था। आपातकाल के बारे में शाह कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि यह इसलिए लगाया गया, क्योंकि न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को चुनाव लड़ने के लिए छह वर्ष के लिए रोक लगा दी थी। तब ऐसा करके इंदिरा गांधी अपनी सीट बचाना चाहती थीं। उस निर्णय को सराहने के बजाय इंदिरा गांधी ने शासन के समूचे तंत्र को ही बदल डाला था। परिणामस्वरूप उन्होंने अपने छोटे बेटे संजय गांधी को अपने सिपहसालारों के सहारे देश का शासन संभालने की इजाजत दे दी। उन दिनों भी मुट्ठी भर सेवारत या सेवानिवृत्त लोक सेवक ऐसे थे, जिन्होंने उस सत्तावादी शासन का विरोध किया था। हालांकि आपातकाल के दौरान दिखाए साहस के लिए उन्हें उसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। उस वक्त जिसने भी इंदिरा को चुनौती देने की सोची, उसे किनारे लगा दिया गया।

नरेंद्र मोदी सरकार ने एक व्यक्ति और उसकी विशिष्टता की परंपरा को नहीं पनपने दिया। इसका ज्यादा जुड़ाव विचारधारा से है, जिसे हम हिंदुत्व कह सकते हैं। वह और भी अमंगल सूचक है। किसी व्यक्ति को कभी भी हटाया जा सकता है, लेकिन विचारों को निकालना बेहद दुष्कर है। सर्वाधिकारवाद और लोकतंत्र के बीच यही अंतर है। दुर्भाग्य से आज हिंदुत्व बनाम बहुलवाद के बीच संघर्ष है। व्यक्ति की निरंकुशता का स्थान अब विचारधारा की निरंकुशता लेती जा रही है। आज त्रासदी यह है कि जो लोग भारत के संघर्ष के लिए खपे, उनका कोई महत्त्व नहीं बचा और जो कभी उस मोर्चे के आसपास भी न दिखे, वे देश का शासन संभाल रहे हैं। आज भी कई ऐसी उदारवादी आवाजें हैं, जिन्हें स्वतंत्रता संग्राम और उसका नेतृत्व करने वाले महात्मा गांधी याद हैं। इसके विपरीत सत्ताधारी दल का पूरा जोर अपने दर्शन पर है। यह दर्शन उस बहुलवाद को स्वीकार नहीं करता, जिसके लिए देश ने विशाल संघर्ष किया था।

दहशत होती है देखकर कि कुछ लोक सेवक खुद हिंदुत्व के बिल्ले बांधे फिर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में, जहां भाजपा सत्ता में आई है, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 26 शीर्ष सचिवों का तबादला किया। ऐसा करके निश्चय ही उन लोगों की राह को आसान बनाया गया है, जिन्हें पार्टी के दर्शन के काफी नजदीक माना जाता है। यह केंद्र के बिलकुल उलट दिखता है, जहां प्रधानमंत्री ने उन सचिवों को महज चेतावनी दी थी, जो अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने में नाकाम रहे थे। मोदी को व्यापारी एक ऐसे शासक के रूप में लेते हैं, जिसके पास व्यापारिक समझ है। अब तक कहीं इसका प्रमाण नहीं मिलता कि मोदी विचारधारा से ऊपर उठ सकते हैं। पांच वर्षीय कार्यकाल में से अभी भी उनके पास दो वर्ष बचे हुए हैं। हो सकता है कि वह अब कुछ ऐसे सख्त फैसले लें, जिससे देश, पार्टी से पहले आ जाए।

ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com

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