स्वच्छता के प्रति गिरता चरित्र

By: Jul 25th, 2017 12:07 am

हिमाचल हाई कोर्ट ने परिवहन निगम की सामाजिक जिम्मेदारी के आलोक में जो निर्देश दिए हैं, वे वास्तव में दायित्व की पहली शर्त होनी चाहिए। माननीय अदालत ने बस अड्डों के शौचालय की स्थिति सुधारने के लिए समयसीमा तय करते हुए बता दिया कि बड़े भवनों या लक्ष्यों के बीच छोटे-छोटे पहलू किस तरह नजरअंदाज होते हैं। हालांकि जब अदालत के आदेश आए, तो निगम नगरोटा बगवां में एक आलीशान बस स्टैंड के उद्घाटन की तैयारियों में मशगूल रहा होगा और ऐसी परिधि में घूमते दायित्व को कैसे मालूम होगा कि पूरा प्रदेश कहां-कहां व्यथित है। यह मात्र निगम की लापरवाही नहीं है, बल्कि सरकारी इमारतों में आम आदमी के लिए जगह व सुविधाओं की कहानी है। प्रदेश में बनी बड़ी इमारतों का मुआयना किया जाए तो सबसे अधिक हताशा आम नागरिक को होती है और इसमें अदालतों  के नए भवन भी शरीक हैं। माननीय अदालत से ऐसी फरियाद विभिन्न मंचों  से होती है, लेकिन अदालती परिसरों को कानून की दरगाह मानते हर दिन जो हुजूम खड़ा रहता है, उसे कम से कम मानवीय सुविधाएं अवश्य मिलें। हम जिस युग में जी रहे हैं, वहां सामुदायिक जरूरतों में समाज की कर्त्तव्यनिष्ठा का निर्धारण भी आवश्यक हो जाता है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अलख जगाकर जिस प्रकार स्वच्छता मुहिम को आगे बढ़ा रहे हैं, उसी परिप्रेक्ष्य में शिमला हाई कोर्ट के निर्देश हमें रास्ता दिखा रहे हैं। भले ही संदर्भ और आदेश परिवहन निगम को चेतावनी दे रहे हैं, लेकिन इसे समग्र रूप में देखें तो हर नागरिक को अपना दायित्व निभाना होगा। उदाहरण के लिए प्रदेश के अस्पतालों में हालांकि शौचालयों की कमी नहीं, लेकिन इनकी हालत का दयनीय पक्ष इन्हें इस्तेमाल करने के गलत तरीके हैं। हम जन सुविधाओं को मानवीय अधिकार की तरह देख सकते हैं, तो क्यों न इनके प्रयोग की शर्तें व सुविधा का शुल्क अनिवार्य किया जाए। विडंबना यह है कि जन सुविधाओं की न अनिवार्यता को समझा जा रहा है और न ही इनके इस्तेमाल का तरीका स्पष्ट हुआ है। हम हर शहरी निकाय को कोस सकते हैं, लेकिन एक हकीकत यह भी है कि नागरिक समाज अपने दायित्व, प्रभाव या जिम्मेदारी का एहसास न कराते हुए केवल सुविधाभोगी बनकर कतार में खड़ा है। हर दिन जनता की जरूरतों, विकास की उपलब्धियों और तरक्की के बिंदुओं का असर अगर स्वच्छता के प्रति गिरते चरित्र में तसदीक हो रहा है, तो हम सभ्य समाज की दिशा में कतई आगे नहीं बढ़ रहे हैं। प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय का हिसाब अगर सही है, तो सरकारी संसाधनों और योजनाओं का इसमें योगदान भी स्पष्ट है। भौगोलिक और भौतिक विकास से फैल रहे उपभोक्तावाद ने हिमाचली बाजार को मजबूती दी है, लेकिन इस तरक्की ने सफाई छीन ली। प्रदेश के व्यापारी, औद्योगिक, पर्यटन, परिवहन व होटल संगठन अगर सफाई की बढ़ती जरूरतों में अपनी भूमिका जोड़ लें, तो स्वच्छता का एक स्थायी ढांचा व परंपराएं विकसित होंगी। यह बीड़ा इन संगठनों को भी उठाना चाहिए, क्योंकि तरक्की के साथ सामूहिक छवि भी नत्थी है। अब समय आ गया है जब हम सामूहिक तरक्की के लिए अपनी-अपनी भूमिका तैयार करें। किसी बाजार की रौनक में अगर माकूल शौचालय व्यवस्था नहीं है, तो व्यापारी वर्ग को इस दिक्कत को समझ कर अपनी भागीदारी निभानी चाहिए। इसी तरह पर्यटन, परिवहन तथा होटल समुदाय को सैलानियों की बढ़ती तादाद में खुद को सफाई की भूमिका में रेखांकित करना होगा। बहरहाल माननीय अदालत ने सार्वजनिक जिम्मेदारी में परिवहन निगम की लापरवाही को इंगित करके आवश्यक शौचालयों व इनकी साफ-सफाई को सुनिश्चित करने का रास्ता दिखाया है। यह विषय समूचे प्रदेश की सबसे बड़ी जरूरत के रूप में दर्ज हो रहा है, तो इसकी व्यापकता में संबंधित विभागों को भी संज्ञान लेना होगा। पर्यटन सीजन, सैलानियों की भीड़ या मंदिरों का रुख करते अपार श्रद्धालु आगमन को सार्वजनिक शौचालय व अन्य आवश्यक सुविधाएं प्रदान करने के तंत्र में विकसित करना होगा। टायलट की आवश्यकता को शहर की चौखट से हर गांव की दहलीज पर समझते हुए सार्वजनिक जीवन की इस आवश्यकता के सरकारी पक्ष में जब तक समाज खुद को नहीं जोड़ता, उल्लेखनीय निष्कर्ष सामने नहीं आएंगे।

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