विकृत सोच का परिणाम है कोटखाई प्रकरण

By: Jul 31st, 2017 12:02 am

सत्येंद्र गौतम

लेखक, धर्मशाला, कांगड़ा से हैं

समाज में संवाद और सहयोग की भावना के साथ आर्थिक समृद्धि के सकारात्मक और  नकारात्मक पहलुओं का प्रबंधन सिखाना होगा। अन्यथा देश और समाज आर्थिक रूप से समृद्ध तो हो सकता है, परंतु मानसिक रूप से विकलांग ही रहेगा। इस कारण कोटखाई प्रकरण सरीखी दर्दनाक व दहला देने वाली घटनाओं की पुनरावृत्ति होगी…

माह जुलाई, दो हजार सत्रह हिमाचल के इतिहास में  दुख, क्षोभ और आक्रोश के लिए अंकित हो गया है। शिमला के कोटखाई क्षेत्र की अबोध बालिका से हुए सामूहिक दुष्कर्म प्रकरण ने एक तरह से हिमाचल प्रदेश की शांत वादियों में अशांति घोलने का कार्य किया है। जनता वास्तविक अपराधियों को पकड़ने और उनको तत्काल सख्त से सख्त सजा देने की मांग कर रही है। अपराध की जघन्यता को देखते हुए यह मांग सर्वथा उचित है। जनता की मांग पर मामला केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो को सौंपा जा चुका है और उसने तेजी से मामले की जांच शुरू भी कर दी है। ऐसे में उम्मीद जगी है कि जांच एजेंसी मामले की सच्चाई सामने लाएगी कि वास्तविक अपराधी कौन हैं। वास्तविकता चाहे जो भी सामने आए, परंतु यह तो सत्य है कि उस मासूम के साथ सामूहिक दुष्कर्म ही नहीं हुआ, अपितु उसकी हत्या भी कर दी गई। इस जघन्यतम घटना से पहले 2012 का निर्भया सामूहिक दुष्कर्म मामला, इसी वर्ष 2017 के मई माह में जेबर गैंग द्वारा  उत्तर प्रदेश की चार महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म और हत्या तथा बाराबंकी सामूहिक दुष्कर्म व ब्लैकमेल सहित कई मामले सामने आए हैं। किसी पुरुष द्वारा किसी महिला के साथ दुष्कर्म के मामले पहले भी सामने आते रहे हैं। ऐसे कृत्य को उस पुरुष की विकृत मानसिकता कहा जा सकता है, परंतु यह अत्यंत हैरान और परेशान करने वाली बात है कि अब यह विकृत मानसिकता प्रसारित हो कर सामूहिक आकार ले रही है। अब किसी अबला और मासूम को नोचने के लिए मौके पर उपस्थित सभी दरिंदे तैयार हो जाते हैं।

तब पुरुष जाति के उन जानवरों में से किसी एक को भी मनुष्यता का अर्थ याद नहीं रहता। कोई मर्द बन कर खड़ा नहीं होता, जो उन दरिंदों को स्मरण करवाए कि घर में तुम्हारी भी मां है, बहन है या बेटी है। उनकी इज्जत का ध्यान रख इस कृत्य को मत करो। किसी का भी मर्द बनकर न खड़ा होना समाज के सामाजिक मूल्यों के निम्न स्तर तक क्षरण का द्योतक है। ऐसी परिस्थितियों में समाज को दिशा दिखाने वाले व्यक्तियों एवं संस्थानों को नींद से जाग जाना चाहिए। इनको मानसिक विकृतियां उत्पन्न करने वाले कारणों को ढूंढ कर उनके  निराकरण के लिए विमर्श करना चाहिए। ऐसी घटनाओं के लिए प्रायः अनपढ़ता और अल्प शिक्षा को दोष दिया जाता है। परंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह तर्क विरोधाभासी प्रतीत होता है, क्योंकि पहले की तुलना में समाज अब और अधिक शिक्षित हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय जहां यह दर बारह प्रतिशत थी, जो इस समय पचहत्तर प्रतिशत से अधिक है। परंतु आज भी भारत में दुष्कर्म महिलाओं से होने वाला चौथा सबसे बड़ा अपराध है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं को सुरक्षा उपलब्ध कराने के बावजूद 2014 में प्रतिदिन 100 महिलाओं का बलात्कार हुआ और 364 महिलाएं यौन शोषण का शिकार हुईं। रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में केंद्र शासित और राज्यों को मिलाकर कुल 36,735 मामले दर्ज हुए। देश में तकरीबन 95,000 से अधिक बलात्कार के मुकदमे विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। भारत में हर घंटे 22 बलात्कार के मामले दर्ज होते हैं। ये वे आंकड़े हैं, जो पुलिस द्वारा दर्ज किए जाते हैं। अधिकांश मामले में तो पुलिस रिपोर्ट दर्ज करती ही नहीं है या लोकलाज के कारण परिजनों द्वारा दबा दिए जाते हैं। साक्षरता की दर में वृद्धि होने पर भी अपराध दर बढ़ रही है, तो निश्चित रूप में यह हमारी शिक्षा और संस्कारों में ही कहीं न कहीं कमी रही है। वर्तमान में शिक्षा मात्र रोजगार सृजन और आर्थिक समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करती है या कुंठा और अवसाद पैदा करती है। विश्व में आर्थिक समृद्धि को ही उन्नति का पैमाना माना जाता है, परंतु इसको प्राप्त करने में सामाजिक तंतुओं का कितना नुकसान हो रहा है, उसे नापने के लिए कोई इंडेक्स नहीं है।

हमारे नीति-नियंताओं ने आर्थिक समृद्धि की ओर दौड़ लगाने के लिए समाज को प्रेरित कर दिया। वाणिज्यक और व्यावसायिक शिक्षा से दौड़ जीतने का मंत्र भी दे दिया, परंतु आर्थिक समृद्धि को संभालने और प्रबंधन करने का गुरुमंत्र देना भूल गए। शासन-प्रशासन में बैठे लोगों के पास दूरदृष्टि होनी चाहिए। उनमें आकलन की क्षमता होनी चाहिए कि किस कदम से राष्ट्र पर कैसा प्रभाव पड़ेगा। आर्थिक समृद्धि की अंधी दौड़ में समाज में सयुंक्त परिवारों का समापन होता जा रहा है। मिलजुल कर रहने और एक-दूसरे के प्रति सम्मान की भावना भी समाज में लगातार क्षीण होती जा रही है। अब एकल परिवारों में हर कार्य इच्छानुसार करना और वस्तु को इच्छानुसार प्राप्त करने की भावना उत्पन्न हो चुकी है। समाज में संस्कारों का सूखा साफ देखा जा सकता है। इसी तरह समाज में मिलजुल कर न बैठने से उत्पन्न होने वाले भाईचारे और सहयोग में कमी साफ झलकती है। ये समस्त कमजोरियां हमारे समाज को क्षीण कर रही हैं। सरकारी योजनाओं के निर्धारण से लेकर प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करने और परिणामों के आकलन के लिए समाजशास्त्रियों, विद्वानों और बुद्धिजीवियों की कोई सहायता ही नहीं ली जाती। समाज को नैतिक और मानसिक रूप से समृद्ध बनाने के लिए शासन-प्रशासन को अपनी योजनाओं की रूपरेखा बनानी और लागू करनी होगी। समाज में संवाद और सहयोग की भावना के साथ आर्थिक समृद्धि के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं का प्रबंधन सिखाना होगा। अन्यथा देश और समाज आर्थिक रूप से समृद्ध तो हो सकता है, परंतु मानसिक रूप से विकलांग ही रहेगा। इस कारण कोटखाई प्रकरण सरीखी दर्दनाक व दहला देने वाली घटनाओं की पुनरावृत्ति होगी।

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