गुरु के बिना त्रिपुर सुंदरी की साधना नहीं

By: Aug 26th, 2017 12:05 am

गुरु और शिष्य का संबंध सांसारिक नहीं है, वह समस्त सांसारिक संबंधों से परे है। जब शिष्य को गुरु और गुरु को शिष्य मिलता है तो संसार में अघटित घटना घटती है। प्रेम और आनंद का समुद्र उमड़ता है और सारे तर्क-वितर्क तथा संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। शिष्य के सामने एक लक्ष्य स्थिर हो जाता है और उसके मन का विश्वास एक पर्वत के समान दृढ़ हो जाता है…

साधना के विषय पर चिंतन करते समय अकसर पूछा जाने वाला सवाल है कि त्रिपुरसुंदरी की साधना में गुरु की उपासना क्यों? क्योंकि गुरु ही साधना-संबंधी ज्ञान प्रदान करता है। शिष्य की हर प्रकार की समस्याओं का निवारण करता है तथा उसे भीषण संकटों से भी उबार लेता है। हर प्रकार की चिंता और आशंका का समाधान गुरु ही करता है। इसलिए गुरु और शिष्य का संबंध सांसारिक नहीं है, वह समस्त सांसारिक संबंधों से परे है। जब शिष्य को गुरु और गुरु को शिष्य मिलता है तो संसार में अघटित घटना घटती है। प्रेम और आनंद का समुद्र उमड़ता है और सारे तर्क-वितर्क तथा संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। शिष्य के सामने एक लक्ष्य स्थिर हो जाता है और उसके मन का विश्वास एक पर्वत के समान दृढ़ हो जाता है। ईश्वर की कृपा से ही गुरु की प्राप्ति होती है। जब कर्मसाम्य की अवस्था आती है, तब सद्गुरु स्वयं ही आकर मिलते हैं। गुरु वह है, जिसके मिलने पर मन के स्वर और ताल बदल जाएं, मन की गति बदल जाए। गुरु के सान्निध्य में साधक को माया-मोह रहित शुद्ध एकात्म आत्मानंद रूपी विश्रांति प्राप्त होती है। वास्तविकता तो यह है कि जब गुरु की कृपा होती है तो शास्त्र का अर्थ अपने आप चला आता है। शिष्य उसे क्या याद करे, वही शिष्य को याद करता है। मनीषियों का मत है कि अभिनय-छल से ईश्वर ही आचार्य एवं शिष्य की भूमिका ग्रहण करता है। मेधावी तांत्रिकों की मान्यता है कि परम शिव स्वयं मनुष्य देह में अपने शिष्यों के ऊपर कृपा करने के लिए गुप्त रूप से पृथ्वी पर विचरण करते हैं। जो सद्गुरु को साक्षात शिव के रूप में भक्तिपूर्वक स्मरण करता है, सिद्धि उसके हाथ में स्थित रहती है। तंत्र शास्त्र का निष्कर्ष है कि मंत्र और पूजा का मूल गुरु है। जो देवता है, वही मंत्र है और जो मंत्र है, वही गुरु है। इन तीनों की पूजा का फल समान है। गुरु अखंड मंडलाकार चराचर विश्व के परम पद का निर्देश करते हैं। वे ज्ञान रूपी अंजन-शलाका से अज्ञानरूपी अंधकार में अंधी बनी शिष्य की आंखें खोल देते हैं। शिष्य को नई दृष्टि मिल जाती है। गुरु की निष्काम कृपा तथा शिष्य की श्रद्धा, गुरु का आत्मदान तथा शिष्य का आत्मसमर्पण। ज्ञान, शक्ति और सिद्धि का दान तथा पाप, अज्ञान और दीनता, दरिद्रता क्षय। शिष्य के हृदय में सोई हुई शक्ति का जागरण। मन में दिव्य भावनाओं का उदय तथा कर्मवासना का क्षय। संपूर्ण संशयों का अंत और विश्वास की प्रतिष्ठा। इस प्रक्रिया को तंत्र शास्त्र में दीक्षा कहा जाता है। मन के मैल धुल जाएं, उस प्रक्रिया का नाम दीक्षा है। दीक्षा के बिना जप-पूजा आदि ऐसे ही हैं, जैसे शिला पर बीज डालना। सद्गुरु अपने स्पर्श से, दृष्टि से तथा संकल्प से अपनी शक्ति शिष्य में डाल देता है। यही शक्तिपात है। गुरु ही शक्तिपात के द्वारा शिष्य की देह में देवता-भाव का संचार करता है। गुरु दीक्षा एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसको सही-सही परिभाषित कर सकना बहुत कठिन है। यही वह प्रक्रिया है, जब साधक की मनःस्थिति ऐसी बन जाती है कि उसे अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सपने में भी संदेह नहीं होता। चित्त चिंताहीन होकर साधना में लगा रहता है। इस विश्वास से चित्त को जो अपार बल मिलता है, वह बल आंका नहीं जा सकता। सिद्धि का कारण भी वह विश्वास ही होता है। वह विश्वास ही शिव रूप है। गुरुदीक्षा से विद्या स्वयंसिद्ध हो जाती है। जिन क्रियाओं के करने में अन्य साधकों को बहुत समय तक कठोर अभ्यास करना पड़ता है, वे क्रियाएं शक्तिपात से युक्त साधक को अनायास मिल जाती हैं।

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