जीडीपी को चाहिए शाकाहार

By: Aug 20th, 2017 12:12 am

newsमांसाहार बनाम शाकाहार की बहस पुरानी होते हुए भी ताजी बनी रहती है। परंपरागत रूप में इस बहस में अपने पक्ष को ठीक साबित करने के लिए प्रायः धार्मिक तर्क दिए जाते रहे हैं। दया, करुणा जैसी भावनाएं इसके केंद्र में रही हैं, लेकिन अब विज्ञान की कसौटी पर भी यह बहस कसी जाने लगी है। शुरुआती दौर में पोषण के नाम पर विज्ञान ने कभी मांसाहार की खूब तरफदारी की थी, लेकिन हालिया शोधों ने वैज्ञानिकों को भी संशय में डाल दिया है। इन शोधों के कारण ही विज्ञान बेहतर स्वास्थ्य और बीमारियों से बचाव के नाम पर शाकाहार की अनुशंसा कर रहा है।

पिछले दो दशकों में जलवायु परिवर्तन की परिघटना के कारण भी शाकाहार बनाम मांसाहार की बहस फिर से तेज हो गई है। कई शोधों ने इस तथ्य को स्थापित किया है कि शाकाहार व्यक्ति के अलावा पृथ्वी के स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है। ऑक्सफोर्ड मार्टिन स्कूल में हुए एक ताजा शोध के अनुसार यदि 2050 तक दुनिया शाकाहारी हो जाए, तो हर साल 70 लाख कम मौतें होंगी और अगर पशु से जुड़े उत्पाद बिलकुल नहीं खाए जाते हैं तो हर साल 80 लाख लोग कम मरेंगे। रिसर्चर मार्को स्प्रिंगमैन के मुताबिक इससे खाद्य सामग्रियों से जुड़े उत्सर्जन में 60 फीसदी की गिरावट आएगी। यह रेड मीट से मुक्ति के कारण होगा, क्योंकि रेड मीट मीथेन गैस उत्सर्जित करने वाले पशुओं से मिलता है। मांस की खपत नहीं होने की वजह से हृदय संबंधित बीमारियां, मधुमेह तथा कैंसर के विभिन्न प्रकारों पर व्यापक पैमाने पर रोक लगेगी। ऐसे में दुनिया भर की दो या तीन फीसदी जीडीपी की बचत हो पाएगी क्योंकि मेडिकल बिल में कटौती होगी। जलवायु परिवर्तन के लिहाज से देखें तो इससे जंगलों पर विपरीत प्रभाव कम पड़ेगा। खत्म हो रही जैव विविधता फिर से वापस आएगी। जंगल में एक किस्म का संतुलन बनेगा। इस शोध में शाकाहार के कारण पैदा होने वाली जटिल स्थितियों का भी आकलन किया गया है। पूर्ण शाकाहार के कारण उन देशों और लोगों पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है, जो पूरी तरह पशुपालन पर आश्रित हैं। इसके कारण एक देश से दूसरे देश में भारी संख्या में विस्थापन होगा और कई तरह की सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याएं भी पैदा होंगी। जो पशुओं से जुड़ी इंडस्ट्री में लगे हैं, उन्हें अपने नए ठिकाने और करियर की तलाश करनी होगी।  अभी तक शाकाहार-मांसाहार संबंधित वैज्ञानिक शोध प्रायः कुछ सीमित पक्षों को लेकर होते रहे हैं। इसमें सांस्कृतिक-सामाजिक प्रभावों के आकलन का अभाव ही रहा है। ऑक्सफोर्ड मार्टिन स्कूल में हुआ यह नया शोध इस बात को साबित करता है कि अन्न का प्रभाव केवल मन पर ही नहीं पड़ता, यह सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को भी प्रभावित करता है।

— डा. जयप्रकाश सिंह

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